बुधवार, मई 25, 2016

व्यंग्य के नाम पर परोसी जा रही है फूहड़ता


शेख मोहम्मद कल्याण
आज के इस दौर में जहां रोजी-रोटी की समस्या मुंह बाए सामने खड़ी हो, घर के बाहर निकलते ही रोशनियों की चकाचौंध जब हमारी आँखों की रोशनी पर ही तीखा प्रहार करती हो, ऐसे में एक साहित्यकार से बात करके जो सुख मिलता है उसे बयां नहीं किया जा सकता। इस भयावह समय में भी लेखक की कलम चुप नहीं रह सकती।  जो समाज में हो रहा है, एक सजग लेखक की पैनी नजऱ उस पर बनी ही रहती है। आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक विसंगतियों को दूर तो नहीं कर सकता एक लेखक लेकिन आम आदमी को चेताता ज़रूर है, इसी पर बात करने के लिए आज हमारे साथ हैं एक अध्यापक, व्यंग्य लेखक, रंगमंच से जुड़े डॉ.पवन खजूरिया।
प्र - पवन जी सबसे पहले यह बताइये की आप एक व्यंग्य लेखक होने के साथ-साथ रंगमंच से भी जुड़े हुए हैं, तो क्या सबसे पहले आप रंगमंच से जुड़े या साहित्य से।
उ - कल्याण जी लगभग सारी चीजें साथ-साथ होती गईं । 1985 की बात है मैं कॉलेज में पढ़ता था तो उस समय की कॉलेज की पत्रिका 'वैष्णवी' में मेरी पहली कविता 'आ गया पुन: बसंत' प्रकाशित हुई थी तब से आज तक अनेक कविताएं लिखी और प्रकाशित भी होती रहीं।
प्र-तो रंगमंच की शुरुआत कैसे हुई?
उ-कॉलेज में ही प्रोफेसर विश्वमूर्ति शास्त्री तथा केवल कृष्ण शास्त्री की देखरेख में 'युवजन' समारोह में पहले नाटक में एक्टिंग करने का मौका मिला, तत्पश्चात स्व. रतन कलसी के साथ नुक्कड़ नाटकों में काम किया, नुक्कड़ नाटक करते ही मुश्ताक़ कॉक के निर्देशन में 1989 में डोगरी नाटक 'सवा सेर कनक' से थिएटर की तरफ रुझान बढऩे लगा जो थिएटर तक मुझे ले गया।
प्र-कुछ खास नाटक जिनमे आपकी भूमिका बहुत सराही गई हो?
उ -जी हाँ दीपक कुमार के निर्देशन में नाटक 'मोटेराम का सत्याग्रह' में एक अंग्रेज़ की भूमिका आज भी लोग बहुत याद करते हैं, इसी तरह डोगरी नाटक 'मनुक्ख', 'होली', 'कहानी हमारी तुम्हारी' तथा 'देवी' उल्लेखनीय हैं।
प्र-आपने जम्मू के किन-किन निर्देशकों के साथ काम किया है।
उ-लगभग सभी के साथ, जनक खजूरिया , दीपक कुमार, बलवंत ठाकुर, मोहन सिंह, स्व.कवि रत्न, स्व.रतन कलसी, भूपिंदर सिंह जम्वाल इत्यादि।
प्र-कुछ नाटकों का लेखन भी आपने किया?
उ-जी नशे पर आधारित नाटक 'जि़म्मेवार कौन', धार्मिक नाटक 'बाबा अंबो' तथा 'चेतो रे कृष्ण' के लेखन के साथ ही एकाँकी नाटक भी लिखे, नशे पर आधारित 'जि़म्मेवार कौन' नाटक तो 'मशवरा' नामक संस्था ने लिखवाया था जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में देविंदर नन्दा के निर्देशन में दस शो हुए थे।
प्र-आपने कहा कि रंगमंच और लेखन साथ-साथ चलते रहे लेकिन आपने लेखन में केवल व्यंग्य की विधा को ही चुना, उसकी कोई खास वजह?
उ-नहीं कोई खास वजह तो नहीं कह सकते,हाँ इतना ज़रूर है की मुझे जो बात कहनी होती,उसे व्यंग्य के माध्यम से कहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आती थी, या यूं कहें की व्यंग्य शैली जो आज लुप्त हो रही है, मुझे ऐसा भी लगा की इस शैली को कम से कम मैं ही सहेजने की कोशिश करूँ।
प्र-आप किस व्यंग्यकार से प्रभावित हैं। और किन-किन व्यंग्यकारों को आपने आज तक पढ़ा है?
उ-मैं ज्यादा तो नहीं कह सकता, लेकिन हरी शंकर परसाई, रविंदर त्यागी ने बहुत प्रभावित किया, बाकी आजकल जो लिखा जा रहा है, उसमे तो व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता ही परोसी जा रही है।
प्र-पवन जी यह बताइये की आज के दौर में साहित्य की सभी विधाओं पर बहुत साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन व्यंग्य बहुत ही कम मात्रा में हमारे सामने आ रहा है, क्या वजह मानते हैं आप?
उ-जहां तक मेरा मानना है की व्यंग्य विधा को बढ़ावा देने के लिए सरकारी अवहेलना तो हुई ही है, पर साहित्यिक संस्थाओं ने भी अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाई।
प्र-पर पवन जी आप भी हिन्दी की एक प्रतिनिधि संस्था से कई सालों से जुड़े हुए हैं, और फिर आप स्वयं भी व्यंग्य लेखक हैं, तो आपने क्या भूमिका निभाई इस व्यंग्य लेखन के बढ़ावे के लिए?
उ-मैं खुद को भी कसूरवार मानता हूँ, कि एक प्रतिनिधि संस्था के साथ होते हुए भी हम इस विधा के लिए कुछ नहीं कर सके।
प्र-तो क्या यह मान लिया जाए की आने वाले कई सालों में व्यंग्य नाम की कोई विधा साहित्य में होगी ही नहीं?
इस बात का कोई भी उत्तर पवन तो क्या हम सब के पास भी नहीं है, क्योंकि आज हमारे पास दर्जनों टीवी चैनल मौजूद हैं, जिनमे साहित्य और व्यंग्य के नाम पर सिर्फ और सिर्फ फूहड़ता परोसी जा रही है, ऐसे में जो व्यंग्य लेखक हैं, उनके लिए यह दौर बहुत मुश्किल दौर है। हम सब को इस बारे में मिलजुल कर सोचना होगा की लुप्त होती इस साहित्यिक विधा को कैसे बचाया जा सकता है।

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