सुरेश एस डुग्गर
धरती का स्वर्ग अर्थात कश्मीर अब आत्महत्याओं का स्वर्ग भी बन गया है। आतंकवाद से जूझ रहे सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के आंकड़े ही अभी तक लोगों को चौंका रहे थे लेकिन नागरिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या अब ज्यादा बढ़ रही है। कश्मीरियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के पीछे बेरोजगारी से लेकर घरेलू समस्याएं तक के कारण गिनाए जा सकते हैं।
अगर सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कश्मीर में आतंकवादी हिंसा का ग्राफ नीचे लुढ़कता जा रहा है। यह खुशी की बात कही जा सकती है। लेकिन चिंता का विषय कश्मीर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े हैं। यह आत्महत्याएं अगर कश्मीर में तैनात सैनिकों की हैं तो कश्मीरी युवकों व युवतियों की भी हैं जो कई कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं।
केंद्र सरकार की चिंता का विषय कश्मीरी नागरिकों द्वारा आत्महत्या करना है। उसकी चिंता का विषय सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं भी हैं जिनमें से 90 प्रतिशत आतंकवादग्रस्त कश्मीर में हुई हैं और इनमें लगातार हो रही बढ़ोत्तरी को रोकने के सभी प्रयास नाकाम ही साबित हो रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर शमशुन निसा की स्टडी कहती है कि 9 सालों में 1678 कश्मीरियों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है। तो तीन सालों के दौरान 768 सैनिकों ने आत्महत्या कर ली। इनमें वे आंकड़े शामिल नहीं हैं जिन जवानों या अधिकारियों की मौतें अपने साथियों द्वारा की गई गोलीबारी से हुई हों।
स्टडी कहती है कि पिछले साल कश्मीर में नागरिकों के साथ-साथ सैनिकों की आत्महत्या का आंकड़ा चिंताजनक था। पिछले साल 300 कश्मीरियों ने आत्महत्या कर ली। इस साल अभी तक 37 सैनिकों ने भी आत्महत्या की है। जबकि आत्महत्या के प्रयासों का आंकड़ा आतंकवादी मौतों से कई गुणा अधिक है। कश्मीर के अस्पतालों के लिए भी अब स्थिति बड़ी गंभीर हो गई है। अभी तक आतंकवादी हमलों के मरीजों की देखभाल में व्यस्त रहने वाले अस्पताल आत्महत्या की कोशिश करने वालों की संख्या से जूझने को मजबूर हैं। श्री महाराजा हरी सिंह अस्पताल को ही लें, हर साल वह एक हजार से अधिक उन मरीजों का इलाज कर रहा है जो आत्महत्या की कोशिश में कुछ खा लेते हैं या फिर अपने आपको जख्मी कर लेते हैं।
सरकारी मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर अरशद अहमद इनसे चिंतित हैं। उन्होंने एक स्टडी भी की है इन मामलों पर और यह स्टडी कहती है कि उनके अस्पताल के कैजुलीटी वार्ड में प्रतिदिन चार केसों को देखा जा रहा है और अन्य अस्पतालों में जाने वालों का आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। उनके मुताबिक पिछले 3 सालों में ही आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आया है। यह उछाल कितना है, डॉ.अहमद ऐसे 18830 मामलों के बारे में स्टडी कर चुके हैं इन तीन सालों में जिनमें अगर महिलाएं सबसे अधिक थीं तो 25 से 34 साल के आयु वर्ग के लोग अधिक थे। रिकार्ड के मुताबिक महिलाओं ने सबसे अधिक आत्महत्याएं की हैं और कोशिशें भी। इस साल जनवरी से लेकर अभी तक के पुलिस रिकार्ड के मुताबिक सिर्फ एक अस्पताल में ही 280 महिलाओं ने आत्महत्याओं की कोशिश की जिनमें से 67 की मौत हो गई। स्टडी और रिकार्ड कहता है कि सबसे अधिक जिन महिलाओं ने आत्महत्या की या कोशिश की उनकी आयु 17 से 25 वर्ष के बीच थी और उनका अनुपात पुरूषों के साथ 1 पुरूष और 7 महिलाओं का था।
आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आखिर क्यों आया। निचोड़ यही निकलता है कि 1989 से जारी आतंकवाद ने कश्मीर के हर घर को झकझोर कर रख दिया है। नतीजतन घरेलू मोर्चे पर नाकाम होने वालों के लिए जिन्दगी से छुटकारा पाने का इससे अधिक आसान रास्ता नहीं है। कश्मीर विश्वविद्यालय में सोशियोलोजी पढ़ाने वाले बशीर अहमद डाबला के मुताबिक, आतंकवादी हिंसा ने आग में घी का काम किया है क्योंकि उसने आम नागरिकों को तनाव के सिवाय कुछ नहीं दिया है। यही कारण है कि जिन्दगी से मुक्ति पाने वाले कुछ निगल कर इह लीला समाप्त कर रहे हैं और फांसी लगा लेना तथा अपने आपको जला लेने की भी हिम्मत भी कई दिखा रहे हैं।
हालांकि सिर्फ आतंकवाद को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि आठवीं कक्षा के छात्र रियाज की आत्महत्या के मामले ने कइयों की आंखें खोली हैं। मात्र मोबाइल पाने की इच्छा पूरी न होने पर फंदे पर झूल जाने वाले रियाज की मौत ने यह भी स्पष्ट किया है कि रहन-सहन के बदलते तौर तरीके भी कुंठाओं को जन्म दे रहे हैं।
रिसर्च स्कॉलर की स्टडी कहती है कि सैनिकों और कश्मीरी नागरिकों की आत्महत्याओं के पीछे का तात्कालिक कारण घरेलू ही है। हालांकि कश्मीरी नागरिक आतंकवादी माहौल से ऊब कर भी मौत को गले लगा रहे हैं। जबकि आंकड़ों के मुताबिक, अन्य मुस्लिम देशों की बनिस्बत कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में आत्महत्याएं नया रिकार्ड बना रही हैं।
आंकड़ों के मुताबिक, मुस्लिम देशों में प्रतिवर्ष एक लाख के पीछे आत्महत्या की दर 0.1 से 0.2 है पर कश्मीर में यह दर 15.2 है जो सभी के लिए चिंता का विषय बन गई है। इसमें चिंता का एक अन्य पहलू यह है कि कश्मीरी नागरिक ही नहीं बल्कि कश्मीर में तैनात सैनिक भी आत्महत्या के मामलों में नया रिकार्ड बना कर सबको चिंता में डाले हुए हैं। मनोचिकित्सक डॉ.हमीदुल्ला शाह कहते हैं कि कश्मीरी कई मामलों के कारण ऐसा कदम उठा रहे हैं और आतंकवाद ने इसमें सिर्फ बढ़ोत्तरी की है। वह कहते हैं कि असल में मानवाधिकार हनन के मामलों ने भी कश्मीरियों की सहनशक्ति के स्तर को कम कर दिया है जो आत्महत्या के रूप में सामने आ रहा है। उनके मुताबिक आतंकवादी हिंसा के माहौल में मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास रूक जाने के कारण आदमी डिप्रेशन में चला जाता है। हालांकि वे कहते थे कि आतंकवादी हिंसा सीधे तौर पर कश्मीर में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार नहीं बल्कि उसके द्वारा पैदा होने वाले हालात ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।
और यह हालात क्या हैं, स्टडी स्पष्ट करती है जिसमें प्यार में नाकामी, वैवाहिक जीवन में तनाव और छात्रों द्वारा अपने अभिभावकों की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरना भी है। ऐसे कारणों से ही रशीद बट अपने दो बच्चों को गंवा चुका है। उसकी 18 वर्षीय बेटी को आतंकवाद नहीं बल्कि सुसाइड का दानव लील गया। अपनी मां से किसी मुद्दे पर हुए झगड़े का परिणाम था कि उसने जेहलम में कूद कर जान दे दी और तीन दिनों के बाद जब उसका शव मिला तो उसका 22 वर्षीय भाई नूर बट इस सदमे को सहन नहीं कर पाया जिसने जहर निगल कर जान दे दी।
डॉक्टरों की स्टडी कहती है कि सोशियो-इकोनोमी कारण भी आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार है। इस कारण मनोचिकित्सकों से इलाज करवाने वालों की संख्या में जबरदस्त बाढ़ आ गई है। वर्ष 1989 में आतंकवाद की शुरूआत से पहले मनोचिकित्सकों को दिखाने वालों की संख्या प्रतिवर्ष 1700-1800 के बीच थी जिसमें अब 35 गुणा का इजाफा हुआ है। वैसे यह एक सच्चाई है कि कश्मीर में आत्महत्या की दर सारे देश में सबसे कम उस समय थी जब आतंकवाद नहीं था।
कश्मीरी डॉक्टर आत्महत्याओं के मामलों को तीन हिस्सों में बांटते हैं। सुसाइड, पैरा सुसाइड और अपने आपको क्षति पहुंचाना। मतलब आत्महत्या कर लेने वाले, कोशिश करने वाले और इस कोशिश में अपने आपको क्षति पहुंचाने वाले। लेकिन इतना जरूर है कि आत्महत्याओं पर होने वाले सभी सर्वेक्षण यह रहस्योदघाटन जरूर करते हैं कि आत्महत्या करने या कोशिश करने वालों में से ५० प्रतिशत कभी भी तनाव से मुक्ति पाने की खातिर मनोचिकित्सक से नहीं मिले। मनोचिकित्सक ही नहीं बल्कि समस्या के हल की खातिर वे कभी किसी डॉक्टर से भी नहीं मिले और उन्होंने परिवार वालों के साथ इसके प्रति संदेह भी नहीं होने दिया कि वे इतना बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं।
जम्मू शहर में अब दरिया तवी और कश्मीर में दरिया जेहलम आत्महत्या के प्वाइंट जरूर बन गए हैं। कई लोगों को आत्महत्या करने की कोशिश करने के प्रयास में इन दरियाओं में कूदते हुए बचाया भी गया है। श्रीनगर के एसएसपी अहफद-उल-मुजतबा का कहना था कि बढ़ती आत्महत्याओं के लिए सामाजिक और तनाव पैदा करने वाली परिस्थितियां ही जिम्मेदार ठहराई जा सकती हैं। हालांकि जिन परिवारों के सदस्यों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया है वे अब किसी से बात करने को भी तैयार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे किसी से खौफजदा हों बल्कि इस्लाम में आत्महत्या करना गैर-इस्लामिक है और इसी कारण से प्रभावित परिवारों के लिए यह स्थिति पैदा हुई है।
कश्मीर में बढ़ती आत्तहत्याओं से निजात पाने की खातिर अब मौलवियों और मुल्लाओं का भी सहारा लिया जा रहा है। मस्जिदों से इसके प्रति ऐलान किए जा रहे हैं लेकिन कामयाबी मिलती नजर नहीं आ रही। मौलवी शौकत अहमद शाह भी मानते हैं कि धार्मिक संगठनों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे लोगों को इस कुरीति के प्रति आगाह करें और ऐसा भयानक कदम उठाने से रोकें क्योंकि इस्लाम में इसकी इजाजत नहीं है।
धरती का स्वर्ग अर्थात कश्मीर अब आत्महत्याओं का स्वर्ग भी बन गया है। आतंकवाद से जूझ रहे सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के आंकड़े ही अभी तक लोगों को चौंका रहे थे लेकिन नागरिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या अब ज्यादा बढ़ रही है। कश्मीरियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के पीछे बेरोजगारी से लेकर घरेलू समस्याएं तक के कारण गिनाए जा सकते हैं।
अगर सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कश्मीर में आतंकवादी हिंसा का ग्राफ नीचे लुढ़कता जा रहा है। यह खुशी की बात कही जा सकती है। लेकिन चिंता का विषय कश्मीर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े हैं। यह आत्महत्याएं अगर कश्मीर में तैनात सैनिकों की हैं तो कश्मीरी युवकों व युवतियों की भी हैं जो कई कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं।
केंद्र सरकार की चिंता का विषय कश्मीरी नागरिकों द्वारा आत्महत्या करना है। उसकी चिंता का विषय सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं भी हैं जिनमें से 90 प्रतिशत आतंकवादग्रस्त कश्मीर में हुई हैं और इनमें लगातार हो रही बढ़ोत्तरी को रोकने के सभी प्रयास नाकाम ही साबित हो रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर शमशुन निसा की स्टडी कहती है कि 9 सालों में 1678 कश्मीरियों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है। तो तीन सालों के दौरान 768 सैनिकों ने आत्महत्या कर ली। इनमें वे आंकड़े शामिल नहीं हैं जिन जवानों या अधिकारियों की मौतें अपने साथियों द्वारा की गई गोलीबारी से हुई हों।
स्टडी कहती है कि पिछले साल कश्मीर में नागरिकों के साथ-साथ सैनिकों की आत्महत्या का आंकड़ा चिंताजनक था। पिछले साल 300 कश्मीरियों ने आत्महत्या कर ली। इस साल अभी तक 37 सैनिकों ने भी आत्महत्या की है। जबकि आत्महत्या के प्रयासों का आंकड़ा आतंकवादी मौतों से कई गुणा अधिक है। कश्मीर के अस्पतालों के लिए भी अब स्थिति बड़ी गंभीर हो गई है। अभी तक आतंकवादी हमलों के मरीजों की देखभाल में व्यस्त रहने वाले अस्पताल आत्महत्या की कोशिश करने वालों की संख्या से जूझने को मजबूर हैं। श्री महाराजा हरी सिंह अस्पताल को ही लें, हर साल वह एक हजार से अधिक उन मरीजों का इलाज कर रहा है जो आत्महत्या की कोशिश में कुछ खा लेते हैं या फिर अपने आपको जख्मी कर लेते हैं।
सरकारी मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर अरशद अहमद इनसे चिंतित हैं। उन्होंने एक स्टडी भी की है इन मामलों पर और यह स्टडी कहती है कि उनके अस्पताल के कैजुलीटी वार्ड में प्रतिदिन चार केसों को देखा जा रहा है और अन्य अस्पतालों में जाने वालों का आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। उनके मुताबिक पिछले 3 सालों में ही आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आया है। यह उछाल कितना है, डॉ.अहमद ऐसे 18830 मामलों के बारे में स्टडी कर चुके हैं इन तीन सालों में जिनमें अगर महिलाएं सबसे अधिक थीं तो 25 से 34 साल के आयु वर्ग के लोग अधिक थे। रिकार्ड के मुताबिक महिलाओं ने सबसे अधिक आत्महत्याएं की हैं और कोशिशें भी। इस साल जनवरी से लेकर अभी तक के पुलिस रिकार्ड के मुताबिक सिर्फ एक अस्पताल में ही 280 महिलाओं ने आत्महत्याओं की कोशिश की जिनमें से 67 की मौत हो गई। स्टडी और रिकार्ड कहता है कि सबसे अधिक जिन महिलाओं ने आत्महत्या की या कोशिश की उनकी आयु 17 से 25 वर्ष के बीच थी और उनका अनुपात पुरूषों के साथ 1 पुरूष और 7 महिलाओं का था।
आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आखिर क्यों आया। निचोड़ यही निकलता है कि 1989 से जारी आतंकवाद ने कश्मीर के हर घर को झकझोर कर रख दिया है। नतीजतन घरेलू मोर्चे पर नाकाम होने वालों के लिए जिन्दगी से छुटकारा पाने का इससे अधिक आसान रास्ता नहीं है। कश्मीर विश्वविद्यालय में सोशियोलोजी पढ़ाने वाले बशीर अहमद डाबला के मुताबिक, आतंकवादी हिंसा ने आग में घी का काम किया है क्योंकि उसने आम नागरिकों को तनाव के सिवाय कुछ नहीं दिया है। यही कारण है कि जिन्दगी से मुक्ति पाने वाले कुछ निगल कर इह लीला समाप्त कर रहे हैं और फांसी लगा लेना तथा अपने आपको जला लेने की भी हिम्मत भी कई दिखा रहे हैं।
हालांकि सिर्फ आतंकवाद को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि आठवीं कक्षा के छात्र रियाज की आत्महत्या के मामले ने कइयों की आंखें खोली हैं। मात्र मोबाइल पाने की इच्छा पूरी न होने पर फंदे पर झूल जाने वाले रियाज की मौत ने यह भी स्पष्ट किया है कि रहन-सहन के बदलते तौर तरीके भी कुंठाओं को जन्म दे रहे हैं।
रिसर्च स्कॉलर की स्टडी कहती है कि सैनिकों और कश्मीरी नागरिकों की आत्महत्याओं के पीछे का तात्कालिक कारण घरेलू ही है। हालांकि कश्मीरी नागरिक आतंकवादी माहौल से ऊब कर भी मौत को गले लगा रहे हैं। जबकि आंकड़ों के मुताबिक, अन्य मुस्लिम देशों की बनिस्बत कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में आत्महत्याएं नया रिकार्ड बना रही हैं।
आंकड़ों के मुताबिक, मुस्लिम देशों में प्रतिवर्ष एक लाख के पीछे आत्महत्या की दर 0.1 से 0.2 है पर कश्मीर में यह दर 15.2 है जो सभी के लिए चिंता का विषय बन गई है। इसमें चिंता का एक अन्य पहलू यह है कि कश्मीरी नागरिक ही नहीं बल्कि कश्मीर में तैनात सैनिक भी आत्महत्या के मामलों में नया रिकार्ड बना कर सबको चिंता में डाले हुए हैं। मनोचिकित्सक डॉ.हमीदुल्ला शाह कहते हैं कि कश्मीरी कई मामलों के कारण ऐसा कदम उठा रहे हैं और आतंकवाद ने इसमें सिर्फ बढ़ोत्तरी की है। वह कहते हैं कि असल में मानवाधिकार हनन के मामलों ने भी कश्मीरियों की सहनशक्ति के स्तर को कम कर दिया है जो आत्महत्या के रूप में सामने आ रहा है। उनके मुताबिक आतंकवादी हिंसा के माहौल में मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास रूक जाने के कारण आदमी डिप्रेशन में चला जाता है। हालांकि वे कहते थे कि आतंकवादी हिंसा सीधे तौर पर कश्मीर में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार नहीं बल्कि उसके द्वारा पैदा होने वाले हालात ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।
और यह हालात क्या हैं, स्टडी स्पष्ट करती है जिसमें प्यार में नाकामी, वैवाहिक जीवन में तनाव और छात्रों द्वारा अपने अभिभावकों की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरना भी है। ऐसे कारणों से ही रशीद बट अपने दो बच्चों को गंवा चुका है। उसकी 18 वर्षीय बेटी को आतंकवाद नहीं बल्कि सुसाइड का दानव लील गया। अपनी मां से किसी मुद्दे पर हुए झगड़े का परिणाम था कि उसने जेहलम में कूद कर जान दे दी और तीन दिनों के बाद जब उसका शव मिला तो उसका 22 वर्षीय भाई नूर बट इस सदमे को सहन नहीं कर पाया जिसने जहर निगल कर जान दे दी।
डॉक्टरों की स्टडी कहती है कि सोशियो-इकोनोमी कारण भी आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार है। इस कारण मनोचिकित्सकों से इलाज करवाने वालों की संख्या में जबरदस्त बाढ़ आ गई है। वर्ष 1989 में आतंकवाद की शुरूआत से पहले मनोचिकित्सकों को दिखाने वालों की संख्या प्रतिवर्ष 1700-1800 के बीच थी जिसमें अब 35 गुणा का इजाफा हुआ है। वैसे यह एक सच्चाई है कि कश्मीर में आत्महत्या की दर सारे देश में सबसे कम उस समय थी जब आतंकवाद नहीं था।
कश्मीरी डॉक्टर आत्महत्याओं के मामलों को तीन हिस्सों में बांटते हैं। सुसाइड, पैरा सुसाइड और अपने आपको क्षति पहुंचाना। मतलब आत्महत्या कर लेने वाले, कोशिश करने वाले और इस कोशिश में अपने आपको क्षति पहुंचाने वाले। लेकिन इतना जरूर है कि आत्महत्याओं पर होने वाले सभी सर्वेक्षण यह रहस्योदघाटन जरूर करते हैं कि आत्महत्या करने या कोशिश करने वालों में से ५० प्रतिशत कभी भी तनाव से मुक्ति पाने की खातिर मनोचिकित्सक से नहीं मिले। मनोचिकित्सक ही नहीं बल्कि समस्या के हल की खातिर वे कभी किसी डॉक्टर से भी नहीं मिले और उन्होंने परिवार वालों के साथ इसके प्रति संदेह भी नहीं होने दिया कि वे इतना बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं।
जम्मू शहर में अब दरिया तवी और कश्मीर में दरिया जेहलम आत्महत्या के प्वाइंट जरूर बन गए हैं। कई लोगों को आत्महत्या करने की कोशिश करने के प्रयास में इन दरियाओं में कूदते हुए बचाया भी गया है। श्रीनगर के एसएसपी अहफद-उल-मुजतबा का कहना था कि बढ़ती आत्महत्याओं के लिए सामाजिक और तनाव पैदा करने वाली परिस्थितियां ही जिम्मेदार ठहराई जा सकती हैं। हालांकि जिन परिवारों के सदस्यों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया है वे अब किसी से बात करने को भी तैयार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे किसी से खौफजदा हों बल्कि इस्लाम में आत्महत्या करना गैर-इस्लामिक है और इसी कारण से प्रभावित परिवारों के लिए यह स्थिति पैदा हुई है।
कश्मीर में बढ़ती आत्तहत्याओं से निजात पाने की खातिर अब मौलवियों और मुल्लाओं का भी सहारा लिया जा रहा है। मस्जिदों से इसके प्रति ऐलान किए जा रहे हैं लेकिन कामयाबी मिलती नजर नहीं आ रही। मौलवी शौकत अहमद शाह भी मानते हैं कि धार्मिक संगठनों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे लोगों को इस कुरीति के प्रति आगाह करें और ऐसा भयानक कदम उठाने से रोकें क्योंकि इस्लाम में इसकी इजाजत नहीं है।
0 टिप्पणियाँ :
एक टिप्पणी भेजें