पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर समेत पड़ोसी राज्य के कुछ जिलों में गछवाहा समुदाय की औरतें अपनी पति की सलामती के लिए मई से लेकर जुलाई तक विधवा का जीवन बसर कर सदियों पुरानी अनूठी प्रथा का पूरी शिद्दत से पालन करती हैं। दरअसल, गछवाहा समुदाय के पुरुष साल के तीन महीने यानी मई से जुलाई तक ताड़ी उतारने का काम करते हैं। इस दौरान अनहोनी की आशंका रहती है, इसलिए उनकी पत्नियां विधवा का जीवन बसर करती हैं....
दांपत्य जीवन के परंपरागत सिद्धांत के अनुसार पत्नी का पति के प्रति समर्पण भाव इस जीवन की आधारशिला माना गया है। हालांकि आज भी भारतीय महिलाओं में यह भाव कमोबेश देखने को मिलता है, लेकिन प्राचीनकाल व परंपरागत समाज में इस भाव की मौजूदगी बहुधा पाई जाती थी। जैसे-जैसे समाज का आधुनिकीकरण हुआ और साक्षरता फैलने लगी, वैसे-वैसे दाम्पत्य जीवन के मानक भी आज काफी बदल चुके हैं। इसके बावजूद कहा जा सकता है कि आज भी महिलाओं में इस भाव की व्यापक मौजूदगी है। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक ऐसा ही उदाहरण है उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में गछवाहा समुदाय की औरतें जो अपनी पति की सलामती के लिए विधवा का जीवन बसर कर अनूठी प्रथा का पालन करती हैं। 'विधवा शब्द की कल्पना भी किसी विवाहिता के मन-मस्तिष्क को विचलित करने के लिए काफी है, मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर समेत पड़ोसी राज्य के कुछ जिलों में गछवाहा समुदाय की औरतें अपनी पति की सलामती के लिए मई से लेकर जुलाई तक विधवा का जीवन बसर कर सदियों पुरानी अनूठी प्रथा का पूरी शिद्दत से पालन करती हैं। दरअसल, गछवाहा समुदाय के पुरुष साल के तीन महीने यानी मई से जुलाई तक ताड़ी उतारने का काम करते हैं और उसी कमाई से वे अपने परिवार का जीवन-यापन करते हैं। ताड़ के पेड़ से ताड़ी निकालने का काम काफी जोखिम भरा माना जाता है। पचास फुट से ज्यादा ऊंचाई के सीधे ताड़ के पेड़ से ताड़ी निकालने के दौरान कई बार जानें भी चली जाती हैं। ताड़ी उतारने के मौसम में इस समुदाय की महिलाएं अपनी पति की सलामती के लिए देवरिया से तीस किलोमीटर दूर गोरखपुर जिले में स्थित तरकुलहां देवी के मंदिर में अपने सुहाग की निशानियां रेहन रख कर अपने पति की सलामती की मन्नत मांगती हैं। इन तीन माह तक ये औरतें अपने घरों में उदासी का जीवन जीती हैं। गछवाहा समुदाय के बारे में जानकारी रखने वाले जगदीश पासवान के अनुसार ताड़ी उतारने का समय समाप्त होने के बाद तरकुलहां देवी मंदिर में गछवाहा समुदाय की औरतें नाग पंचमी के दिन
ईकट्ठा होकर पूजा करने के बाद सामूहिक गौठ का आयोजन करती हैं। इसमें सधवा के रूप में शृंगार कर खाने-पीने का आयोजन कर मंदिर में आशीर्वाद लेकर महिलाएं अपने परिवार में प्रसन्नतापूर्वक जाती हैं। गछवाहा समुदाय वास्तव में पासी जाति से होते हैं और सदियों से यह तबका ताड़ी उतारने के काम में लगा है। हालांकि अब इस समुदाय में भी शिक्षा का स्तर बढ़ता जा रहा है और युवा वर्ग इस पेशे से दूर हो रहे हैं। वैसे भी नशे का निर्माण अब एक सम्मानजनक व्यवसाय नहीं माना जाता है। इसके अलावा इसमें जोखिम बहुत रहता है, इसलिए नई पीढ़ी इस व्यवसाय को छोड़ रही है। वे नए व्यवसाय अपनाने लगे हैं। यह व्यवसाय छूट जाने के कारण अब इस अमानवीय प्रथा पर रोक लगनी भी शुरू हो गई है। जैसे-जैसे साक्षरता फैल रही है, यह समाज भी आधुनिक बनता जा रहा है और नए व्यवसाय अपना रहा है।
दांपत्य जीवन के परंपरागत सिद्धांत के अनुसार पत्नी का पति के प्रति समर्पण भाव इस जीवन की आधारशिला माना गया है। हालांकि आज भी भारतीय महिलाओं में यह भाव कमोबेश देखने को मिलता है, लेकिन प्राचीनकाल व परंपरागत समाज में इस भाव की मौजूदगी बहुधा पाई जाती थी। जैसे-जैसे समाज का आधुनिकीकरण हुआ और साक्षरता फैलने लगी, वैसे-वैसे दाम्पत्य जीवन के मानक भी आज काफी बदल चुके हैं। इसके बावजूद कहा जा सकता है कि आज भी महिलाओं में इस भाव की व्यापक मौजूदगी है। इसके कई उदाहरण दिए जा सकते हैं। एक ऐसा ही उदाहरण है उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों में गछवाहा समुदाय की औरतें जो अपनी पति की सलामती के लिए विधवा का जीवन बसर कर अनूठी प्रथा का पालन करती हैं। 'विधवा शब्द की कल्पना भी किसी विवाहिता के मन-मस्तिष्क को विचलित करने के लिए काफी है, मगर पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया, गोरखपुर, कुशीनगर समेत पड़ोसी राज्य के कुछ जिलों में गछवाहा समुदाय की औरतें अपनी पति की सलामती के लिए मई से लेकर जुलाई तक विधवा का जीवन बसर कर सदियों पुरानी अनूठी प्रथा का पूरी शिद्दत से पालन करती हैं। दरअसल, गछवाहा समुदाय के पुरुष साल के तीन महीने यानी मई से जुलाई तक ताड़ी उतारने का काम करते हैं और उसी कमाई से वे अपने परिवार का जीवन-यापन करते हैं। ताड़ के पेड़ से ताड़ी निकालने का काम काफी जोखिम भरा माना जाता है। पचास फुट से ज्यादा ऊंचाई के सीधे ताड़ के पेड़ से ताड़ी निकालने के दौरान कई बार जानें भी चली जाती हैं। ताड़ी उतारने के मौसम में इस समुदाय की महिलाएं अपनी पति की सलामती के लिए देवरिया से तीस किलोमीटर दूर गोरखपुर जिले में स्थित तरकुलहां देवी के मंदिर में अपने सुहाग की निशानियां रेहन रख कर अपने पति की सलामती की मन्नत मांगती हैं। इन तीन माह तक ये औरतें अपने घरों में उदासी का जीवन जीती हैं। गछवाहा समुदाय के बारे में जानकारी रखने वाले जगदीश पासवान के अनुसार ताड़ी उतारने का समय समाप्त होने के बाद तरकुलहां देवी मंदिर में गछवाहा समुदाय की औरतें नाग पंचमी के दिन
ईकट्ठा होकर पूजा करने के बाद सामूहिक गौठ का आयोजन करती हैं। इसमें सधवा के रूप में शृंगार कर खाने-पीने का आयोजन कर मंदिर में आशीर्वाद लेकर महिलाएं अपने परिवार में प्रसन्नतापूर्वक जाती हैं। गछवाहा समुदाय वास्तव में पासी जाति से होते हैं और सदियों से यह तबका ताड़ी उतारने के काम में लगा है। हालांकि अब इस समुदाय में भी शिक्षा का स्तर बढ़ता जा रहा है और युवा वर्ग इस पेशे से दूर हो रहे हैं। वैसे भी नशे का निर्माण अब एक सम्मानजनक व्यवसाय नहीं माना जाता है। इसके अलावा इसमें जोखिम बहुत रहता है, इसलिए नई पीढ़ी इस व्यवसाय को छोड़ रही है। वे नए व्यवसाय अपनाने लगे हैं। यह व्यवसाय छूट जाने के कारण अब इस अमानवीय प्रथा पर रोक लगनी भी शुरू हो गई है। जैसे-जैसे साक्षरता फैल रही है, यह समाज भी आधुनिक बनता जा रहा है और नए व्यवसाय अपना रहा है।
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