गुरुवार, अगस्त 31, 2017

डोकलाम विवाद पर बनी चीन के साथ सहमति

भारत की कूटनीतिक जीत
नई दिल्ली।  
करीब ढाई महीने तक एक-दूसरे के सामने डोकलाम में खड़ी भारत और चीन की सेनाएं अब धीरे-धीरे पीछे हटेंगी। भारत के लिए यह कूटनीतिक जीत इसलिए भी है, क्योंकि भारत पहले भी चीन को दोनों सेनाओं के पीछे हटने का प्रस्ताव रख चुका था। चीन ने उस वक्त भारत के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था और कहा था कि भारत बिना किसी शर्त के अपनी सेना को पीछे हटाए। अब जब दोनों देश डोकलाम से सेनाए हटाने पर राजी हो गए हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए की 3 से 5 सितंबर तक होने वाले ब्रिक्स सम्मेलन में पीएम मोदी व चिनफिंग के बीच मुलाकात अच्छी रहेगी।
बता दें कि पिछले दिनों चीन की चेतावनी के बीच एनएसए अजीत डोभाल ने बीजिंग की दो दिनों की यात्रा की थी। ब्रिक्स देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक में अतंरराष्ट्रीय आतंकवाद पर चर्चा हुई थी। लेकिन इसके इतर चीन के राष्ट्रपति चिनफिंग और एनएसए डोभाल के बीच बातचीत भी हुई। उम्मीद के मुताबिक डोकलाम मुद्दे पर दोनों पक्षों ने अपनी राय जाहिर की, लेकिन उस समय कुछ खास उपलब्धि सामने निकल कर नहीं आई थी। अब जो चीज निकलकर आयी है उसे एनएसए डोभाल की यात्रा की सफलता भी माना जा रहा है।
डोकलाम का मामला चीन के राजनैतिक नेतृत्व के लिए लगातार मुश्किल होता जा रहा था। ईस्ट और साउथ चाइना सी में चीन लगातार अंतरराष्ट्रीय दबाव को खारिज कर अपनी मनमर्जी चलाता है। लेकिन भारत पर वो अपना दबाव नहीं बना पाया। डोकलाम इलाके से भारत एक इंच भी पीछे हटने को तैयार नहीं था। इस साल के अंत तक चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी का एक अहम सम्मेलन भी होने वाला है। चीनी विश्लेषकों का कहना था कि पार्टी में एक धड़ा ऐसा है, जो सैन्य हस्तक्षेप के जरिए डोकलाम मुद्दे का हल निकालने की मांग कर रहा था। इस वजह से चिनफिंग पर दबाव बढ़ गया था।
एक अगस्त को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के 90 साल पूरे हुए। इससे पहले भी चीन की तरफ से ये कोशिश हो रही थी कि भारत इस तारीख से पहले डोकलाम से बाहर निकल जाए। चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग और डोभाल की बैठक में इस मुद्दे का कोई हल भले ही न निकला हो। लेकिन लगातार चल रही तनातनी के बाद आई यह थोड़ी सी शांति को दोनों पक्षों के नेताओं के लिए अहम माना गया। उस समय भी माना गया था कि डोभाल के बीजिंग दौरे से आपसी सहमति से कोई रास्ता आने वाले समय में निकल सकता है। एक चीनी विश्लेषक का कहना था कि दोनों पक्षों की ओर से दिखाई जा रही आक्रामकता में कमी आने के कारण शायद दोनों देश इस मामले का समाधान निकाल सकते हैं। लेकिन यह कोई आसान काम नहीं है। दोनों ही तरफ भड़काऊ बयान देने वाले लोग हैं।
चीन मामलों के जानकार ब्रह्मा चेलानी ने उस समय कहा था कि बीजिंग का ढकोसला भी उजागर होता जा रहा है। दो उदाहरणों पर गौर कीजिए। मध्य जुलाई में चीनी सरकारी टेलीविजन सीसीटीवी ने तिब्बत में तैनात माउंटेन ब्रिगेड द्वारा सैन्य अभ्यास का सीधा प्रसारण दिखाया। बाद में यह सामने आया कि ऐसा अभ्यास हर साल होता है। यह मामला इस संकट की शुरुआत से पहले जून का है। सीसीटीवी की रिपोर्ट के तुरंत बाद चीनी सेना के आधिकारिक अखबार पीएलए डेली ने लिखा कि इस गतिरोध से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर जंगी साजोसामान तिब्बत भेजा जा रहा है। यह रिपोर्ट भी कोरी बकवास निकली, क्योंकि भारतीय खुफिया एजेंसियों को तिब्बत में चीन के सैन्य जमावड़े का कोई सुराग नहीं मिला। सवाल उठता है कि ऐसी मनोवैज्ञानिक लड़ाई से चीन आखिर क्या हासिल करने की उम्मीद कर सकता है?
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ब्रह्मा चेलानी ने कहा कि भूटान की सेना, पुलिस और मिलिशिया में महज 8,000 लोग हैं। जाहिर है उसके पास चीन को आंखें दिखाने की हिम्मत नहीं है। भारत उसका रक्षा साझीदार है, लेकिन उसने भूटानी सुरक्षा बलों को सिर्फ प्रशिक्षित किया। जब चीन द्वारा भूटान की जमीन को हड़पने की हालिया कोशिशें भारत को अपनी सुरक्षा के लिए खतरा लगीं, तब नई दिल्ली ने निर्णय किया कि यह लड़ाई जितनी भूटान की है उतनी ही भारत की भी। इस बार चीन रणनीतिक आकलन में गलती कर गया। चीन ने सोचा होगा कि सड़क निर्माण को लेकर भूटान कूटनीतिक विरोध करेगा, लेकिन उसे भारत के त्वरित सैन्य हस्तक्षेप की उम्मीद नहीं थी। भारत के लिए यह बिल्कुल गवारा नहीं कि चीन डोकलाम पर नियंत्रण के साथ बढ़त बना ले। इससे न केवल त्रिकोणीय मार्ग पर चीन की सैन्य स्थिति मजबूत होगी, बल्कि भारत के पूर्वोत्तर राज्य भी उसकी मारक क्षमता की जद में आ जाएंगे।
पूर्वी और दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में जिन द्वीपों को लेकर बीजिंग का जापान के साथ विवाद है। चीन ने उन इलाकों पर एयर फ्लाइट कंट्रोल जोन लागू कर दिया है। इसके अलावा अमेरिका के विरोध के बाद भी चीन ने साउथ चाइना सी के विवादित हिस्सों में कृत्रिम द्वीपों का निर्माण कराया। इस पूरे मामले में चीन के ऊपर जबर्दस्त अंतरराष्ट्रीय दबाव है। लेकिन इसके बावजूद वह अपने रुख पर कायम है। 

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