एक और ट्रेन हादसे का शिकार हो गई।
पिछले कुछ हादसों की तरह जिसे आतंकी साजिश माना जा रहा था, वह हादसा रेलवे की एक बड़ी चूक का नतीजा निकला। शुरुआती जांच में सामने आया कि ट्रैक पर मरम्मत का काम चल रहा था, मगर जिम्मेदार अफसरों को इसकी जानकारी ही नहीं थी। अभी रुकिए, जांच होगी, 1-2 अफसर सस्पेंड हो जाएंगे और बस पूरा मामला ठंडे बस्ते में चला जाएगा। अफसर भी सस्पेंड होते ही बहाल होने के लिए हैं। थोड़े दिन सस्पेंड रहेंगे, क्या दिक्कत है। मीडिया को भी नया मुद्दा मिल जाएगा और फिर इंतजार किया जाएगा दूसरा हादसा होने का। मगर कब तक रेलवे के बड़े अधिकारी और खुद रेल मंत्री सुरेश प्रभु अपनी नैतिक जिम्मेदारी से बचेंगे।प्रभु की छवि एक प्रोग्रेसिव रेल मंत्री की है। सोशल मीडिया पर जिस तरह की छवि बनी, उससे यह विश्वास भी हो जाता है। मगर क्या रेलवे में उनका जऱा सा भी इकबाल है? क्या उन्होंने कभी एक बेहतरीन प्रशासक के तौर पर रेलवे के आधारभूत ढांचे को मजबूत करने का काम किया? आंकड़ों और रेलवे के मौजूदा हाल को जानेंगे, तो रेलवे मोदी सरकार के सबसे विफल विभागों की पंक्ति में सबसे आगे खड़ा नजऱ आएगा। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक नवंबर 2014 में सुरेश प्रभु के रेल मंत्री बनने के बाद करीब 23 छोटे-बड़े रेल हादसे हुए, जिनमें लगभग 323 मौतें हुईं और 950 से ज्यादा घायल हुए हैं।
ये आंकड़े तब ज्यादा निराश करते हैं, जब प्रधानमंत्री मोदी लाल बहादुर शास्त्री के आदर्शों का बखान करते नहीं थकते। लाल बहादुर शास्त्री देश के शायद एकमात्र ऐसे नेता रहे हैं, जिन्होंने एक रेल हादसे को अपनी विफलता मानते हुए रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। मैं नहीं कहता हूं कि सुरेश प्रभु को भी वही करना चाहिए। लेकिन आखिर कब तक लोगों की जान जाती रहेगी और प्रभु सोशल मीडिया वाली गुड गवर्नेंस की छवि को निहारते रहेंगे? आखिर क्यों हर रेल हादसे के बाद कार्रवाई के नाम पर सिर्फ लीपापोती की जाती है? जब तक रेल हादसों और कामकाज में लापरवाही की जिम्मेदारी ष्ठक्ररू, त्ररू और रेलवे बोर्ड के मेंबर्स जैसे बड़े अधिकारियों पर नहीं डाली जाएगी, हालात ऐसे ही रहेंगे।
रेलवे के जमीनी हालात बेहद बदतर हैं, मगर रेलवे के अधिकारी और शायद खुद रेल मंत्री सुरेश प्रभु ट्रेनों में दूध की बोतल और डायपर पहुंचाने के बाद मिलने वाली तारीफों को पाकर ही उत्साहित नजऱ आ रहे हैं। हमने समय-समय पर रेलवे में होने वाली लापरवाहियों को उजागर किया है। कई खबरों का असर हुआ, मगर कई मामलों का संज्ञान लेना तक जरूरी नहीं समझा गया। हमने कुछ समय पहले एक खबर की, जिसमें बताया गया कि किस तरह रेलवे में 'ई-कैटरिंग सर्विस से जुड़े वेंडर्स मिनिमम ऑर्डर अमाउंट के नाम पर धांधली कर रहे हैं'। खबर की रिपोर्टिंग के दौरान हैरानी तब हुई, जब ढ्ढक्रष्टञ्जष्ट ने कहा कि यह उनकी जानकारी में है, मगर वह कुछ कर नहीं सकते। हालांकि 'खबर का असर हुआ और ऐसे सारे वेंडर्स बाद में बैन कर दिए गए'।
दो-तीन दिन पहले ही प्रकाशित एक और खबर में हमने बताया कि किस तरह 'रेलवे स्टेशनों और ट्रेन के अंदर वेंडर्स तय कीमत से ज्यादा रेट पर' खाना-पानी और जरूरी सामान बेच रहे हैं। कई वेंडर्स ने यूं तो रेलवे हेल्पलाइन नंबर मिटा रखे हैं, मगर आप इन नंबरों पर शिकायत भी करिए तो कार्रवाई की बात कहकर मामले को टाल दिया जाता है। आप कुछ दिनों बाद शिकायत का स्टेटस जानना चाहेंगे, तो उनके पास इसका कोई रेकॉर्ड ही नहीं होगा।
ट्विटर पर रेलवे और सुरेश प्रभु ने लोगों की मदद कर खूब ख्याति हासिल की। मगर आप गौर करिए या खुद कभी किसी गंभीर मामले की शिकायत करिए, तो पाएंगे कि मदद सिर्फ ऐसे मामलों में की गई, जिनमें मदद करना आसान था और ज्यादा प्रशासनिक पेच नहीं थे। गंभीर मामलों का ट्विटर पर ना रेल मंत्री संज्ञान लेते हैं और न ही रेल मंत्रालय।
जब रेलवे के जमीनी स्तर पर ऐसे हालात हैं, तो आप कैसे दावा करते हैं कि हम आने वाले सालों में देश में बुलेट ट्रेन चलाएंगे।
देश के कई हिस्से अब भी रेल कनेक्टिविटी तक से वंचित हैं, कई इलाकों में कनेक्टिविटी है भी तो ट्रेनें आज भी अंग्रेजों के जमाने के ट्रैक पर दौड़ रही हैं। ऐसे में रेल मंत्रालय के लिए जरूरी होगा कि फिलहाल वह रेल यात्रियों की सुरक्षा-संरक्षा और उनकी बुनियादी जरूरतों पर ध्यान दे, जिससे उन्हें अकाल मौत और संगठित लूट से बचाया जा सके।
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