मुश्किल प्रतियोगिता पास करके आने वाली मेरी क्लास में 112 स्टूडेंट थे, सीबीएसई से सिलेक्शन होने की वजह से क्लास के 22 स्टूडेंट ने हमारे आने से 3 महीने पहले ही क्लास ज्वाइन कर ली थी। उन्ही में से एक थी आकांक्षा। हमारे ज्वाइन करने से पहले वह लोग काफ़ी घुल-मिल चुके थे उस माहौल में। उस बैच में ज़्यादातर लोग दिल्ली-एनसीआर से थे। उनका कॉन्फिडेंस लेवल हमसे ज़्यादा था, ऐसा मैं मानती थी।
शुरुआती दिनो में तो हम सारे सहमे हुए कॉलेज के कॉरिडोर में घूमा करते थे। सीनियर्स का डर, रैगिंग का डर बाक़ी लोग जाने कितने इंटेलिजेंट होंगे? हम उनके बीच कही ठहर भी पाएंगे का डर। ज़्यादातर लोग इन्हीं सबसे जूझ रहे होते थे। ऐसे में क्लास की एक लड़की सीनियर बैच के एक लड़के अमित के साथ बोल्डली घूमती थी, जो सुना था उसके अनुसार वह उसका ब्वॉयफ्रेंड था। तो निश्चित ही वह हमारी पूरी क्लास की अटेंशन ले रही थी। जहां मैं लड़को से बात करने या उनकी तरफ़ देखने को भी ग़लत समझती थी, वहां किसी लड़की का ब्वॉयफ्रेंड होना कैसे स्वीकार होता? जब आप ख़ुद किसी हीन भावना से ग्रसित होते हो, तो आप अपने से ऊपर दिख रहे इंसान को नीचे लाना चाहते हो उससे जलते हो, ये स्वाभाविक है। उसकी बोल्ड्नेस पर तरह-तरह की बातें होती थीं। ऐसी चर्चाओं में मैं भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करती थी। हमेशा अच्छे नम्बरों से एग्जाम में पास होते रहने पर भी, क्लास में उसे अच्छी नजऱ से नहीं देखा जाता था। ये बात मुझे अलग सी ख़ुशी देती थी, अब जलन नहीं होती थी। अपनी इस छोटी सोच पर आज आश्चर्य होता है मुझे। पर वो तब भी वैसी ही थी स्वच्छंद, मनमौजी।
एक दिन पता चला कि अमित सर को ब्लड कैन्सर हो गया है, और उनकी प्रोग्नॉसिस बहुत ही पुअर है। सब लोग स्तब्ध थे पूरा कॉलेज उनके लिए दुआ कर रहा था। एक दिन सर क्लास में आए साथ में आकांक्षा भी थी। आकांक्षा ने रोते हुए कहा कि प्लीज मेरे अमु के लिए दुआ करो। बहुत दु:ख हुआ था, सबकी आंखों में आंसू थे, मगर मुझे आकांक्षा पर दया नहीं आई थी। ऐसा ही है हमारा समाज लड़के को गर्लफ्रेंड रखने पर परहेज़ नहीं, मगर एक लड़की ब्वॉयफ्रेंड कैसे रख सकती है? उसे कैसे माफ़ करती मैं?
एक दिन ख़बर मिली कि अमित सर नहीं रहे। सारा कॉलेज दु:ख में डूब गया। आकांक्षा कुछ दिन में ही सामान्य होकर क्लास आने लगी। सारा टाइम जज करते थे उसको हम। दुखी है भी या नहीं। सच में अपनी तरह से जि़ंदगी जीने की हिम्मत करने वाले को कितने इम्तिहान देने होते हैं, जिस पर उसके फेल होने का इंतज़ार भी सबको होता है। आकांक्षा ये जानती भी थी या नहीं हमें नहीं पता। पर दिल से उसका साथ मैं नहीं देती थी ये सच था।
समय बीतता गया सब लोग अपने अपने रास्ते पर निकल गए। 12 साल बाद कहीं फेसबुक से पता चला था आकांक्षा की हैप्पी फैमिली के बारे में। आकांक्षा आज भी बोल्ड नजर आती है। उसकी पोस्ट और फोटो नियमित रूप से आती रहती थीं। मन में सवाल आया की ऐसी लड़कियां (इतनी बिंदास मेरे हिसाब से) परिवार के साथ ख़ुश रहती होंगी? बातों-बातों में अपने फ्रेंड्स से जानने की कोशिश भी की। फिर कऱीब एक साल बाद पता चला कि उसका तलाक हो गया है। अंदर सेआवाज़ आई ये तो होना ही था। ये जानने की कोशिश किए बिना कि वजह क्या थी?, मन ने फिर, एक लड़की को इतना बोल्ड व बिंदास नहीं होना चाहिए था पर मोहर लगा दी।
मैं आजकल एक एनजीओ चलाने लगी हूं, वहां जब लड़कियों को सहते हुए देखती हूं, तो सोचती हूं कि ये अपनी बेडिय़ों कोतोडऩा क्यूं नहीं चाहतीं? क्यूं हर वक़्त लोग क्या कहेंगे का डर इन्हें इतना परेशान करता है? अगर पति अच्छा नहींमिला तो छोड़ क्यूं नहीं देती। क्यूं इज़्ज़त का भारी बोझ लेकर सहमी सी चलती रहती हैं? जि़ंदगी एक बार मिलती है तोक्यूं उसे मैं, ख़ुद कैसे जीना चाहती हूं ,से नहीं जी पाती? इन्हीं सवालों से दिनभर लड़ती हूं.....
आज मेरे साथ दूसरे लोग भी काम करते हैं। कुछ एक डॉक्टर, राजनेता और सोशल वर्कर से तो बहुत अच्छी दोस्ती भी हो गई है, याद भी नहीं रहता कि उनमें से कुछ पुरुष भी हैं। फिर जब कोई ऐसी वैसी बात अपने बारे में कहते हुए सुनती हूं, तो सोचती हूं, कितने दकिय़ानूसीलोग हैं। दूसरे की जि़ंदगी से इनको क्या लेना? एक लड़की खुल के जीना चाहती है तो इन्हें क्या दिक़्क़त? आज मैं कॉलेज वाली 'आकांक्षा थी और बाक़ी सब मैंने समय के साथ ख़ुद को बदल लिया है। आज आकांक्षा ग़लत नहीं लगती। सच ये है कि उसने ये बातें बहुत जल्दी समझ ली थीं।
आज सालों बाद आकांक्षा से बात हुई। पता चला उसे ब्रेस्ट कैंसर है। बहुत दु:ख हुआ जानकर। आज खुद को अपराधबोध भी हुआ, क्योंकि यही आकांक्षा थी जिसके जैसा मैं अब हर लड़की को बनाना चाहती हूं मगर एक समय उसी को स्वीकार नहीं कर पाती थी। आज मैं तुमसे माफ़ी मांगना चाहती हूं आकांक्षा, तुम सही थी, मेरी ही सोच कितनी छोटी थी। वो समय कभी वापस नहीं सकता पर अपनी ग़लती की माफ़ी मांगकर अपने दिल का कुछ बोझ शायद काम कर पाऊं।
कुछ सोच बहुत हावी रहती है दिमाग़ पर, जल्दी से नहीं हट पाती। मगर ज़ोर लगाकर ही सही इसे हटाना तो होगा। मुझे लगभग बीस साल लग गए ऐसा करने में।
ये कहानी इसलिए लिख रही हूं, ताकि मेरे जैसा आप इतना समय न लगाएं। जब किसी पर कटाक्ष करें, ख़ासकर किसी के चरित्र पर तो ये ज़रूर सोचें कि अपना दिल क्या कहता है?, क्या मैं या मेरी बेटी या और कोई मेरा अपना इसके जैसे माहौल में होता तो कैसा रिएक्ट करतीं। शायद फिर हम किसी के चरित्र का मूल्यांकन करते समय इतने कठोर न हों।
शुरुआती दिनो में तो हम सारे सहमे हुए कॉलेज के कॉरिडोर में घूमा करते थे। सीनियर्स का डर, रैगिंग का डर बाक़ी लोग जाने कितने इंटेलिजेंट होंगे? हम उनके बीच कही ठहर भी पाएंगे का डर। ज़्यादातर लोग इन्हीं सबसे जूझ रहे होते थे। ऐसे में क्लास की एक लड़की सीनियर बैच के एक लड़के अमित के साथ बोल्डली घूमती थी, जो सुना था उसके अनुसार वह उसका ब्वॉयफ्रेंड था। तो निश्चित ही वह हमारी पूरी क्लास की अटेंशन ले रही थी। जहां मैं लड़को से बात करने या उनकी तरफ़ देखने को भी ग़लत समझती थी, वहां किसी लड़की का ब्वॉयफ्रेंड होना कैसे स्वीकार होता? जब आप ख़ुद किसी हीन भावना से ग्रसित होते हो, तो आप अपने से ऊपर दिख रहे इंसान को नीचे लाना चाहते हो उससे जलते हो, ये स्वाभाविक है। उसकी बोल्ड्नेस पर तरह-तरह की बातें होती थीं। ऐसी चर्चाओं में मैं भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया करती थी। हमेशा अच्छे नम्बरों से एग्जाम में पास होते रहने पर भी, क्लास में उसे अच्छी नजऱ से नहीं देखा जाता था। ये बात मुझे अलग सी ख़ुशी देती थी, अब जलन नहीं होती थी। अपनी इस छोटी सोच पर आज आश्चर्य होता है मुझे। पर वो तब भी वैसी ही थी स्वच्छंद, मनमौजी।
एक दिन पता चला कि अमित सर को ब्लड कैन्सर हो गया है, और उनकी प्रोग्नॉसिस बहुत ही पुअर है। सब लोग स्तब्ध थे पूरा कॉलेज उनके लिए दुआ कर रहा था। एक दिन सर क्लास में आए साथ में आकांक्षा भी थी। आकांक्षा ने रोते हुए कहा कि प्लीज मेरे अमु के लिए दुआ करो। बहुत दु:ख हुआ था, सबकी आंखों में आंसू थे, मगर मुझे आकांक्षा पर दया नहीं आई थी। ऐसा ही है हमारा समाज लड़के को गर्लफ्रेंड रखने पर परहेज़ नहीं, मगर एक लड़की ब्वॉयफ्रेंड कैसे रख सकती है? उसे कैसे माफ़ करती मैं?
एक दिन ख़बर मिली कि अमित सर नहीं रहे। सारा कॉलेज दु:ख में डूब गया। आकांक्षा कुछ दिन में ही सामान्य होकर क्लास आने लगी। सारा टाइम जज करते थे उसको हम। दुखी है भी या नहीं। सच में अपनी तरह से जि़ंदगी जीने की हिम्मत करने वाले को कितने इम्तिहान देने होते हैं, जिस पर उसके फेल होने का इंतज़ार भी सबको होता है। आकांक्षा ये जानती भी थी या नहीं हमें नहीं पता। पर दिल से उसका साथ मैं नहीं देती थी ये सच था।
समय बीतता गया सब लोग अपने अपने रास्ते पर निकल गए। 12 साल बाद कहीं फेसबुक से पता चला था आकांक्षा की हैप्पी फैमिली के बारे में। आकांक्षा आज भी बोल्ड नजर आती है। उसकी पोस्ट और फोटो नियमित रूप से आती रहती थीं। मन में सवाल आया की ऐसी लड़कियां (इतनी बिंदास मेरे हिसाब से) परिवार के साथ ख़ुश रहती होंगी? बातों-बातों में अपने फ्रेंड्स से जानने की कोशिश भी की। फिर कऱीब एक साल बाद पता चला कि उसका तलाक हो गया है। अंदर सेआवाज़ आई ये तो होना ही था। ये जानने की कोशिश किए बिना कि वजह क्या थी?, मन ने फिर, एक लड़की को इतना बोल्ड व बिंदास नहीं होना चाहिए था पर मोहर लगा दी।
मैं आजकल एक एनजीओ चलाने लगी हूं, वहां जब लड़कियों को सहते हुए देखती हूं, तो सोचती हूं कि ये अपनी बेडिय़ों कोतोडऩा क्यूं नहीं चाहतीं? क्यूं हर वक़्त लोग क्या कहेंगे का डर इन्हें इतना परेशान करता है? अगर पति अच्छा नहींमिला तो छोड़ क्यूं नहीं देती। क्यूं इज़्ज़त का भारी बोझ लेकर सहमी सी चलती रहती हैं? जि़ंदगी एक बार मिलती है तोक्यूं उसे मैं, ख़ुद कैसे जीना चाहती हूं ,से नहीं जी पाती? इन्हीं सवालों से दिनभर लड़ती हूं.....
आज मेरे साथ दूसरे लोग भी काम करते हैं। कुछ एक डॉक्टर, राजनेता और सोशल वर्कर से तो बहुत अच्छी दोस्ती भी हो गई है, याद भी नहीं रहता कि उनमें से कुछ पुरुष भी हैं। फिर जब कोई ऐसी वैसी बात अपने बारे में कहते हुए सुनती हूं, तो सोचती हूं, कितने दकिय़ानूसीलोग हैं। दूसरे की जि़ंदगी से इनको क्या लेना? एक लड़की खुल के जीना चाहती है तो इन्हें क्या दिक़्क़त? आज मैं कॉलेज वाली 'आकांक्षा थी और बाक़ी सब मैंने समय के साथ ख़ुद को बदल लिया है। आज आकांक्षा ग़लत नहीं लगती। सच ये है कि उसने ये बातें बहुत जल्दी समझ ली थीं।
आज सालों बाद आकांक्षा से बात हुई। पता चला उसे ब्रेस्ट कैंसर है। बहुत दु:ख हुआ जानकर। आज खुद को अपराधबोध भी हुआ, क्योंकि यही आकांक्षा थी जिसके जैसा मैं अब हर लड़की को बनाना चाहती हूं मगर एक समय उसी को स्वीकार नहीं कर पाती थी। आज मैं तुमसे माफ़ी मांगना चाहती हूं आकांक्षा, तुम सही थी, मेरी ही सोच कितनी छोटी थी। वो समय कभी वापस नहीं सकता पर अपनी ग़लती की माफ़ी मांगकर अपने दिल का कुछ बोझ शायद काम कर पाऊं।
कुछ सोच बहुत हावी रहती है दिमाग़ पर, जल्दी से नहीं हट पाती। मगर ज़ोर लगाकर ही सही इसे हटाना तो होगा। मुझे लगभग बीस साल लग गए ऐसा करने में।
ये कहानी इसलिए लिख रही हूं, ताकि मेरे जैसा आप इतना समय न लगाएं। जब किसी पर कटाक्ष करें, ख़ासकर किसी के चरित्र पर तो ये ज़रूर सोचें कि अपना दिल क्या कहता है?, क्या मैं या मेरी बेटी या और कोई मेरा अपना इसके जैसे माहौल में होता तो कैसा रिएक्ट करतीं। शायद फिर हम किसी के चरित्र का मूल्यांकन करते समय इतने कठोर न हों।
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