गुरुवार, मई 26, 2016

क्यों नहीं डूबे रामसेतु के लिए इस्तेमाल हुए पत्थर?

कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपने कोई पत्थर पानी में फेंका और वह डूबा नहीं, बल्कि पानी की सतह पर तैरता चला गया हो? शायद नहीं, क्योंकि पत्थर का एक पर्याप्त वजन पानी को चीरते हुए खुद को उसमें डुबो ही लेता है। फिर आश्चर्य की बात है कि सदियों पहले श्रीराम की वानर सेना द्वारा बनाए गए रामसेतु पुल के पत्थर पानी में डालते ही डूबे क्यों नहीं?
एडेम्स ब्रिज :- जी हां, वही रामसेतु जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'एडेम्स ब्रिज' के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथ रामायण के अनुसार यह एक ऐसा पुल है, जिसे भगवान विष्णु के सातवें एवं हिन्दू धर्म में विष्णु के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रहे अवतार श्रीराम की वानर सेना द्वारा भारत के दक्षिणी भाग रामेश्वरम पर बनाया गया था, जिसका दूसरा किनारा वास्तव में श्रीलंका के मन्नार तक जाकर जुड़ता है।
ऐसी मान्यता है कि इस पुल को बनाने के लिए जिन पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था वह पत्थर पानी में फेंकने के बाद समुद्र में नहीं डूबे। बल्कि पानी की सतह पर ही तैरते रहे। ऐसा क्या कारण था कि यह पत्थर पानी में नहीं डूबे? कुछ लोग इसे धार्मिक महत्व देते हुए ईश्वर का चमत्कार मानते हैं लेकिन साइंस इसके पीछे क्या तर्क देता है यह बिल्कुल विपरीत है।
लेकिन इससे ऊपर एक बड़ा सवाल यह है कि 'क्या सच में रामसेतु नामक कोई पुल था'। क्या सच में इसे हिन्दू धर्म के भगवान श्रीराम ने बनवाया था? और यदि बनवाया था तो अचानक यह पुल कहां गया।
धार्मिक मान्यता अनुसार जब असुर सम्राट रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अपने साथ लंका ले गया था, तब श्रीराम ने वानरों की सहायता से समुद्र के बीचो-बीच एक पुल का निर्माण किया था। यही आगे चलकर रामसेतु कहलाया था। कहते हैं कि यह विशाल पुल वानर सेना द्वारा केवल 5 दिनों में ही तैयार कर लिया गया था। कहते हैं कि निर्माण पूर्ण होने के बाद इस पुल की लम्बाई 30 किलोमीटर और चौड़ाई 3 किलोमीटर थी।
आश्चर्य की बात है कि मीलों का फासला रखने वाले दो देशों के बीचो-बीच मौज़ूद इस समुद्र को लांघने के लिए महज पांच दिनों में कैसे वानर सेना ने एक पुल बना डाला। इसे विस्तार से समझने के लिए महर्षि वाल्मीकि द्वारा रची गई 'रामायण' में रामसेतु के निर्माण का वर्णन किया गया है।
रामायण ग्रंथ के अनुसार जब लंकापति राजा रावण, श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर उन्हें लंका ले गया था, तब भगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी की खोज आरंभ की। जटायू से उन्हें यह पता लगा कि उनकी पत्नी को एक ऐसा राक्षस राजा ले गया है, जो मीलों दूर एक बड़े समुद्र को पारकर दूसरे छोर पर लंका में रहता है।
अब चिंतित श्रीराम यह सोचने लगे कि आखिरकार वे किस प्रकार से अपनी पत्नी को लंका में खोजेंगे। तब पवनपुत्र हनुमानजी ने अपनी दैविक शक्तियों का प्रयोग किया और उड़ान भरकर लंका की ओर निकल गए माता सीता को खोजने के लिए।
लंका पहुंचकर रावण की कैद में हनुमानजी ने सीताजी को खोज तो निकाला, लेकिन वे उन्हें वापस ना लेकर आए। क्योंकि उन्होंने देखा कि केवल माता सीता ही नहीं, बल्कि उनके साथ एक बड़ी संख्या में बेकसूर लोगों को रावण ने अपना बंदी बनाया हुआ है।
तब श्रीराम ने फैसला किया कि वे स्वयं अपनी सेना के साथ लंका जाकर ही सबको रावण की कैद से छुड़ाएंगे। लेकिन यह सब कैसे होगा, यह एक बड़ा सवाल था। क्योंकि निश्चय तो था लेकिन रास्ते में था एक विशाल समुद्र जिसे पार करने का कोई जरिया हासिल नहीं हो रहा था।
एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि अपनी मुश्किल का हल निकालने के लिए श्रीराम द्वारा समुद्र देवता की पूजा आरंभ की गई। लेकिन जब कई दिनों के बाद भी समुद्र देवता प्रकट नहीं हुए तब क्रोध में आकर श्रीराम ने समुद्र को सुखा देने के उद्देश्य से अपना धनुष-बाण उठा लिया।
उनके इस कदम से समुद्र के प्राण सूखने लगे। तभी भयभीत होकर समुद्र देवता प्रकट हुए और बोले, 'श्रीराम! आप अपनी वानर सेना की मदद से मेरे ऊपर पत्थरों का एक पुल बनाएं। मैं इन सभी पत्थरों का वजन सम्भाल लूंगा। आपकी सेना में नल एवं नील नामक दो वानर हैं, जो सर्वश्रेष्ठ हैं।'
'नल, जो कि भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं उन्हें अपने पिता द्वारा वरदान हासिल है। उनकी सहायता से आप एक कठोर पुल का निर्माण कराएं। यह पुल आपकी सारी सेना का भार संभाल लेगा और आपको लंका ले जाने में सफल होगा', ऐसा कहते हुए समुद्र देव ने श्रीराम से पुल बनाने का विनम्र अनुरोध किया।
अगले ही पल नल तथा नील की मदद से पूरी वानर सेना तमाम प्रकार की योजनाएं बनाने में सफल हुई। अंत में योजनाओं का चुनाव करते हुए पुल बनाने का सामान एकत्रित किया गया। पूरी वानर सेना आसपास से पत्थर, पेड़ के तने, मोटी शाखाएं एवं बड़े पत्ते तथा झाड़ लाने में सफल हुई।
अंत में नल तथा नील की देखरेख तथा पूर्ण वैज्ञानिक योजनाओं के आधार पर एक विशाल पुल तैयार किया गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि नल तथा नील शायद जानते थे कि कौन सा पत्थर किस प्रकार से रखने से पानी में डूबेगा नहीं तथा दूसरे पत्थरों का सहारा भी बनेगा।
वानरों द्वारा बनाए गए इस पुल का एक हिस्सा भारत के रामेश्वरम से शुरू होकर लंका के मन्नार द्वीप से जुड़ता था। इस पुल द्वारा अपनी सेना के साथ श्रीराम लंका पहुंचे और वहां असुर सम्राट रावण के साथ भीषण युद्ध किया। अंत में रावण को हराकर वे अपनी पत्नी सीता और उन तमाम कैदियों को छुड़ाने में सफल हुए जो वर्षों से रावण की कैद में बंधे हुए थे।
श्रीराम तथा रावण के बीच हुआ यह युद्ध हिन्दू धर्म के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण युद्ध रहा, क्योंकि इस युद्ध ने लोगों को समझाया कि अधर्म पर हमेशा धर्म की ही जीत होती है। लेकिन आज का आधुनिक युग विभिन्न मान्यताओं नहीं बल्कि तथ्यों को अपना आधार मानता है।
क्या है वैज्ञानिक कारण?
इसलिए इतने सालों के शोध के बाद वैज्ञानिकों ने रामसेतु पुल में इस्तेमाल हुए पत्थरों का वजूद खोज निकाला है। विज्ञान का मानना है कि रामसेतु पुल को बनाने के लिए जिन पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था वे कुछ खास प्रकार के पत्थर हैं, जिन्हें 'प्यूमाइस स्टोन' कहा जाता है।
दरअसल यह पत्थर ज्वालामुखी के लावा से उत्पन्न होते हैं। जब लावा की गर्मी वातावरण की कम गर्म हवा या फिर पानी से मिलती है तो वे खुद को कुछ कणों में बदल देती है। कई बार यह कण एक बड़े पत्थर को निर्मित करते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जब ज्वालामुखी का गर्म लावा वातावरण की ठंडी हवा से मिलता है तो हवा का संतुलन बिगड़ जाता है।
ऐसे डूब गया रामसेतु पुल :- लेकिन कुछ समय के बाद जब धीरे-धीरे इन छिद्रों में हवा के स्थान पर पानी भर जाता है तो इनका वजन बढ़ जाता है और यह पानी में डूबने लगते हैं। यही कारण है कि रामसेतु पुल के पत्थर कुछ समय बाद समुद्र में डूब गए और उसके भूभाग पर पहुंच गए। नैशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस, नासा जो कि विश्व की सबसे विख्यात वैज्ञानिक संस्था में से एक है उसके द्वारा सैटलाइट की मदद से रामसेतु पुल को खोज निकाला गया।
इन तस्वीरों के मुताबिक वास्तव में एक ऐसा पुल जरूर दिखाया गया है जो कि भारत के रामेश्वरम से शुरू होकर श्रीलंका के मन्नार द्वीप तक पहुंचता है। परन्तु किन्हीं कारणों से अपने आरंभ होने से कुछ ही दूरी पर यह समुद्र में समा गया है।
रामेश्वरम में कुछ समय पहले लोगों को समुद्र तट पर कुछ वैसे ही पत्थर मिले जिन्हें प्यूमाइस स्टोन कहा जाता है। लोगों का मानना है कि यह पत्थर समुद्र की लहरों के साथ बहकर किनारे पर आए हैं। बाद में लोगों के बीच यह मान्यता फैल गई कि हो ना हो यह वही पत्थर हैं, जिन्हें श्रीराम की वानर सेना द्वारा रामसेतु पुल बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया होगा।
लेकिन वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक और शोध ने प्यूमाइस स्टोन के सिद्धांत को भी गलत साबित किया है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सच है कि प्यूमाइस स्टोन पानी में नहीं डूबते और ऊपर तैरते हैं और यह ज्वालामुखी के लावा से बनते हैं। लेकिन उनका यह भी मानना है कि रामेश्वरम में दूर-दूर तक सदियों से कोई भी ज्वालामुखी नहीं देखा गया है
इसके साथ ही जिस प्रकार के पत्थर रामेश्वरम के तट से प्राप्त हुए हैं, उनमें और प्यूमाइस स्टोन में काफी अंतर पाया गया है। क्योंकि उनका वजन अमूमन पाए जाने वाले प्यूमाइस स्टोन से काफी अधिक है। इसके साथ ही पाए गए पत्थरों का रंग भी आमतौर पर देखे गए प्यूमाइस स्टोन से भिन्न है। लेकिन अब यह लोगों की श्रद्धा कहें या भावना, उनके द्वारा इन पत्थरों की खासतौर से पूजा की जाती है।

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