गुरुवार, मई 26, 2016

पानी की किल्लत

संपादक महोदय,
जब तापमान करीब 43 डिग्री के आस-पास होने के कारण गर्मी अपने पूरे उफान पर है जम्मू संभाग विशेषरूप से जम्मू शहर में लोग अनियमित आपूर्ति के चलते परेशान हो रहे हैं। पानी की किल्लत को लेकर जहां लोगों की बैचेनी दिन ब दिन बढ़ती ही जा रही है। वहीं दूसरी ओर जल प्रबंधन का शोर है और शहर में आवश्यकता के अनुसार पेयजल आपूर्ति के बारे में सिर्फ बनावटी बातें ही की जा रही है। जब ऊंचे दावों की पोल खुल रही है तो संबंधित अधिकारियों के पास आम लोगों की दुर्दशा के बारे में कोई शब्द नहीं है। पीएचई विभाग द्वारा की जा रही पेयजल आपूर्ति की पूरी व्यवस्था अस्थायी कर्मचारियों और दैनिक वेतनभोगियों द्वारा चलाई जा रही है। उनमें से कुछ एक दशक से अधिक समय से विभाग में कार्यरत होने के बावजूद अभी तक अस्थायी कर्मचारी ही हैं। ये कर्मचारी गत 70 दिनों से उन्हें नियमित किए जाने की मांग को लेकर हड़ताल पर हैं, लेकिन सरकार इस मांग को मानने को तैयार नहीं है। यह एक बहुत ही अतार्किक और अनुचित स्थिति है। अगर एक दशक से भी अधिक समय से सेवारत रहने के बाद भी पीएचई उन्हें नियमित करने की स्थिति में नहीं है और अगर वे अपनी मांगों को लेकर सरकार पर दबाव डाल रहे हैंं, तो सरकार क्यों नहीं उनके स्थान पर और अस्थायी कर्मचारी तैनात करके शहर और पेयजल किल्लत से काफी परेशान कंडी क्षेत्रों में पेयजल आपूर्ति उपलब्ध करवाती। अगर सरकार सोचती है कि इन अस्थायी कर्मचारियों की बर्खास्तगी इनके साथ अन्याय होगा तो सरकार इन्हें नियमित करने के बारे क्यों नहीं विचार करती है। यह जनता की सरकार है, इसे जनहित में काम करना है। लेकिन वह असलियत में पानी की कमी से लाखों लोगों को परेशान कर लोगों के हितों के खिलाफ काम कर रही है। मंत्रियों, विधायकों और शीर्ष नौकरशाहों को नियमित रूप से पानी की आपूर्ति मिल रही है और वे हड़ताल से प्रभावित नहीं हैं। इसलिए वे लाखों आम लोगों को पेश आ रही समस्याओं को नहीं समझ सकते हैं। करीब दो वर्ष पूर्व आगामी 30 वर्षों के लिए ग्रेटर जम्मू की पेयजल जरूरत पूरी करने के लिए 1008 करोड़ रूपए की चिनाब जल परियोजना तैयार की गई थी, लेकिन इसे एशियन डव्ल्पमेंट बैंक ने कुछ तकनीकी कारणों से नामंजूर कर दिया था। पीएचई विभाग का कहना है कि अब एक जापानी कंपनी द्वारा परियोजना शुरू किए जाने की संभावना है। क्या विभाग के पास इसका जवाब है कि जब एडीबी ने इस परियोजना से हाथ खिंचा तो उसके बाद 2 वर्ष तक विभाग ने क्या किया? क्या अन्य विकल्प तलाशना उसकी जिम्मेदारी नहीं थी? अब 19 टयूब वैल खोदने के आदेश दिए गए हैं, जो दिसंबर 2016 तक पूर्ण होंगे। इसका मतलब है कि दिसंबर तक या सात माह तक जम्मू शहर के लिए 20 लाख गैलन पानी की कमी जारी रहेगी। प्रस्तावित 19 नलकूप भले ही दिसंबर तक पूर्ण होने हो लेकिन उनसे भी कई कारणों से समस्या का समाधान होता नजर नहीं आता है। यह निश्चित रूप से कोई नहीं बता सकता कि इनमें से कितने टयूबवैल में पर्याप्त पानी होगा। दूसरे बिजली आपूर्ति की निराशाजनक हालत को देखते हुए यह नहीं लगता कि इन नलकूपों के लिए नियमित रूप से बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित हो पाएगी। भले ही बिजली की आपूर्ति नियमित रूप से हो और नलकूपों के लिए पर्याप्त पानी हो , क्या महिनों तक हड़ताल पर रहने वाले अस्थायी श्रमिकों / मजदूरों के साथ क्या ये सब संभव हो पाएगा।  इसलिए ट्यूबवेल समस्या के लिए कोई वास्तविक समाधान नहीं है। सरकार को तत्काल सही जल संसाधन प्रबंधन नीति तैयार करनी चाहिए। शहर में पानी की कमी एक बहुत ही गंभीर मुद्दा बनता जा रहा है।-सुशांत  

क्यों नहीं डूबे रामसेतु के लिए इस्तेमाल हुए पत्थर?

कभी आपके साथ ऐसा हुआ है कि आपने कोई पत्थर पानी में फेंका और वह डूबा नहीं, बल्कि पानी की सतह पर तैरता चला गया हो? शायद नहीं, क्योंकि पत्थर का एक पर्याप्त वजन पानी को चीरते हुए खुद को उसमें डुबो ही लेता है। फिर आश्चर्य की बात है कि सदियों पहले श्रीराम की वानर सेना द्वारा बनाए गए रामसेतु पुल के पत्थर पानी में डालते ही डूबे क्यों नहीं?
एडेम्स ब्रिज :- जी हां, वही रामसेतु जिसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 'एडेम्स ब्रिज' के नाम से जाना जाता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथ रामायण के अनुसार यह एक ऐसा पुल है, जिसे भगवान विष्णु के सातवें एवं हिन्दू धर्म में विष्णु के सबसे ज्यादा प्रसिद्ध रहे अवतार श्रीराम की वानर सेना द्वारा भारत के दक्षिणी भाग रामेश्वरम पर बनाया गया था, जिसका दूसरा किनारा वास्तव में श्रीलंका के मन्नार तक जाकर जुड़ता है।
ऐसी मान्यता है कि इस पुल को बनाने के लिए जिन पत्थरों का इस्तेमाल किया गया था वह पत्थर पानी में फेंकने के बाद समुद्र में नहीं डूबे। बल्कि पानी की सतह पर ही तैरते रहे। ऐसा क्या कारण था कि यह पत्थर पानी में नहीं डूबे? कुछ लोग इसे धार्मिक महत्व देते हुए ईश्वर का चमत्कार मानते हैं लेकिन साइंस इसके पीछे क्या तर्क देता है यह बिल्कुल विपरीत है।
लेकिन इससे ऊपर एक बड़ा सवाल यह है कि 'क्या सच में रामसेतु नामक कोई पुल था'। क्या सच में इसे हिन्दू धर्म के भगवान श्रीराम ने बनवाया था? और यदि बनवाया था तो अचानक यह पुल कहां गया।
धार्मिक मान्यता अनुसार जब असुर सम्राट रावण माता सीता का हरण कर उन्हें अपने साथ लंका ले गया था, तब श्रीराम ने वानरों की सहायता से समुद्र के बीचो-बीच एक पुल का निर्माण किया था। यही आगे चलकर रामसेतु कहलाया था। कहते हैं कि यह विशाल पुल वानर सेना द्वारा केवल 5 दिनों में ही तैयार कर लिया गया था। कहते हैं कि निर्माण पूर्ण होने के बाद इस पुल की लम्बाई 30 किलोमीटर और चौड़ाई 3 किलोमीटर थी।
आश्चर्य की बात है कि मीलों का फासला रखने वाले दो देशों के बीचो-बीच मौज़ूद इस समुद्र को लांघने के लिए महज पांच दिनों में कैसे वानर सेना ने एक पुल बना डाला। इसे विस्तार से समझने के लिए महर्षि वाल्मीकि द्वारा रची गई 'रामायण' में रामसेतु के निर्माण का वर्णन किया गया है।
रामायण ग्रंथ के अनुसार जब लंकापति राजा रावण, श्रीराम की पत्नी सीता का हरण कर उन्हें लंका ले गया था, तब भगवान श्रीराम ने अपनी पत्नी की खोज आरंभ की। जटायू से उन्हें यह पता लगा कि उनकी पत्नी को एक ऐसा राक्षस राजा ले गया है, जो मीलों दूर एक बड़े समुद्र को पारकर दूसरे छोर पर लंका में रहता है।
अब चिंतित श्रीराम यह सोचने लगे कि आखिरकार वे किस प्रकार से अपनी पत्नी को लंका में खोजेंगे। तब पवनपुत्र हनुमानजी ने अपनी दैविक शक्तियों का प्रयोग किया और उड़ान भरकर लंका की ओर निकल गए माता सीता को खोजने के लिए।
लंका पहुंचकर रावण की कैद में हनुमानजी ने सीताजी को खोज तो निकाला, लेकिन वे उन्हें वापस ना लेकर आए। क्योंकि उन्होंने देखा कि केवल माता सीता ही नहीं, बल्कि उनके साथ एक बड़ी संख्या में बेकसूर लोगों को रावण ने अपना बंदी बनाया हुआ है।
तब श्रीराम ने फैसला किया कि वे स्वयं अपनी सेना के साथ लंका जाकर ही सबको रावण की कैद से छुड़ाएंगे। लेकिन यह सब कैसे होगा, यह एक बड़ा सवाल था। क्योंकि निश्चय तो था लेकिन रास्ते में था एक विशाल समुद्र जिसे पार करने का कोई जरिया हासिल नहीं हो रहा था।
एक पौराणिक कथा के अनुसार ऐसा माना जाता है कि अपनी मुश्किल का हल निकालने के लिए श्रीराम द्वारा समुद्र देवता की पूजा आरंभ की गई। लेकिन जब कई दिनों के बाद भी समुद्र देवता प्रकट नहीं हुए तब क्रोध में आकर श्रीराम ने समुद्र को सुखा देने के उद्देश्य से अपना धनुष-बाण उठा लिया।
उनके इस कदम से समुद्र के प्राण सूखने लगे। तभी भयभीत होकर समुद्र देवता प्रकट हुए और बोले, 'श्रीराम! आप अपनी वानर सेना की मदद से मेरे ऊपर पत्थरों का एक पुल बनाएं। मैं इन सभी पत्थरों का वजन सम्भाल लूंगा। आपकी सेना में नल एवं नील नामक दो वानर हैं, जो सर्वश्रेष्ठ हैं।'
'नल, जो कि भगवान विश्वकर्मा के पुत्र हैं उन्हें अपने पिता द्वारा वरदान हासिल है। उनकी सहायता से आप एक कठोर पुल का निर्माण कराएं। यह पुल आपकी सारी सेना का भार संभाल लेगा और आपको लंका ले जाने में सफल होगा', ऐसा कहते हुए समुद्र देव ने श्रीराम से पुल बनाने का विनम्र अनुरोध किया।
अगले ही पल नल तथा नील की मदद से पूरी वानर सेना तमाम प्रकार की योजनाएं बनाने में सफल हुई। अंत में योजनाओं का चुनाव करते हुए पुल बनाने का सामान एकत्रित किया गया। पूरी वानर सेना आसपास से पत्थर, पेड़ के तने, मोटी शाखाएं एवं बड़े पत्ते तथा झाड़ लाने में सफल हुई।
अंत में नल तथा नील की देखरेख तथा पूर्ण वैज्ञानिक योजनाओं के आधार पर एक विशाल पुल तैयार किया गया। वैज्ञानिकों का मानना है कि नल तथा नील शायद जानते थे कि कौन सा पत्थर किस प्रकार से रखने से पानी में डूबेगा नहीं तथा दूसरे पत्थरों का सहारा भी बनेगा।
वानरों द्वारा बनाए गए इस पुल का एक हिस्सा भारत के रामेश्वरम से शुरू होकर लंका के मन्नार द्वीप से जुड़ता था। इस पुल द्वारा अपनी सेना के साथ श्रीराम लंका पहुंचे और वहां असुर सम्राट रावण के साथ भीषण युद्ध किया। अंत में रावण को हराकर वे अपनी पत्नी सीता और उन तमाम कैदियों को छुड़ाने में सफल हुए जो वर्षों से रावण की कैद में बंधे हुए थे।
श्रीराम तथा रावण के बीच हुआ यह युद्ध हिन्दू धर्म के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण युद्ध रहा, क्योंकि इस युद्ध ने लोगों को समझाया कि अधर्म पर हमेशा धर्म की ही जीत होती है। लेकिन आज का आधुनिक युग विभिन्न मान्यताओं नहीं बल्कि तथ्यों को अपना आधार मानता है।
क्या है वैज्ञानिक कारण?
इसलिए इतने सालों के शोध के बाद वैज्ञानिकों ने रामसेतु पुल में इस्तेमाल हुए पत्थरों का वजूद खोज निकाला है। विज्ञान का मानना है कि रामसेतु पुल को बनाने के लिए जिन पत्थरों का इस्तेमाल हुआ था वे कुछ खास प्रकार के पत्थर हैं, जिन्हें 'प्यूमाइस स्टोन' कहा जाता है।
दरअसल यह पत्थर ज्वालामुखी के लावा से उत्पन्न होते हैं। जब लावा की गर्मी वातावरण की कम गर्म हवा या फिर पानी से मिलती है तो वे खुद को कुछ कणों में बदल देती है। कई बार यह कण एक बड़े पत्थर को निर्मित करते हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जब ज्वालामुखी का गर्म लावा वातावरण की ठंडी हवा से मिलता है तो हवा का संतुलन बिगड़ जाता है।
ऐसे डूब गया रामसेतु पुल :- लेकिन कुछ समय के बाद जब धीरे-धीरे इन छिद्रों में हवा के स्थान पर पानी भर जाता है तो इनका वजन बढ़ जाता है और यह पानी में डूबने लगते हैं। यही कारण है कि रामसेतु पुल के पत्थर कुछ समय बाद समुद्र में डूब गए और उसके भूभाग पर पहुंच गए। नैशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस, नासा जो कि विश्व की सबसे विख्यात वैज्ञानिक संस्था में से एक है उसके द्वारा सैटलाइट की मदद से रामसेतु पुल को खोज निकाला गया।
इन तस्वीरों के मुताबिक वास्तव में एक ऐसा पुल जरूर दिखाया गया है जो कि भारत के रामेश्वरम से शुरू होकर श्रीलंका के मन्नार द्वीप तक पहुंचता है। परन्तु किन्हीं कारणों से अपने आरंभ होने से कुछ ही दूरी पर यह समुद्र में समा गया है।
रामेश्वरम में कुछ समय पहले लोगों को समुद्र तट पर कुछ वैसे ही पत्थर मिले जिन्हें प्यूमाइस स्टोन कहा जाता है। लोगों का मानना है कि यह पत्थर समुद्र की लहरों के साथ बहकर किनारे पर आए हैं। बाद में लोगों के बीच यह मान्यता फैल गई कि हो ना हो यह वही पत्थर हैं, जिन्हें श्रीराम की वानर सेना द्वारा रामसेतु पुल बनाने के लिए इस्तेमाल किया गया होगा।
लेकिन वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक और शोध ने प्यूमाइस स्टोन के सिद्धांत को भी गलत साबित किया है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि यह सच है कि प्यूमाइस स्टोन पानी में नहीं डूबते और ऊपर तैरते हैं और यह ज्वालामुखी के लावा से बनते हैं। लेकिन उनका यह भी मानना है कि रामेश्वरम में दूर-दूर तक सदियों से कोई भी ज्वालामुखी नहीं देखा गया है
इसके साथ ही जिस प्रकार के पत्थर रामेश्वरम के तट से प्राप्त हुए हैं, उनमें और प्यूमाइस स्टोन में काफी अंतर पाया गया है। क्योंकि उनका वजन अमूमन पाए जाने वाले प्यूमाइस स्टोन से काफी अधिक है। इसके साथ ही पाए गए पत्थरों का रंग भी आमतौर पर देखे गए प्यूमाइस स्टोन से भिन्न है। लेकिन अब यह लोगों की श्रद्धा कहें या भावना, उनके द्वारा इन पत्थरों की खासतौर से पूजा की जाती है।

भौंकने वाली गिलहरी

हां-हां! गिलहरी.. और वह भी भौंकने वाली। शीर्षक में कोई भूल नहीं। उत्तरी अमेरिका के प्रेयरी मैदानों में ऐसी गिलहरियां बहुतायत में पाई जाती हैं, जो किसी संकट या आपातकाल की आहट होने पर तुरंत भौंकने लगती हैं। स्क्यूरस ग्रीसियस वैज्ञानिक नाम वाली इन गिलहरियों को प्रेयरी गिलहरी या जंगली गिलहरी भी कहते हैं। ये गिलहरियां आमतौर पर सामान्य आवाज में ही परस्पर संवाद करती हैं, लेकिन खतरा सामने दिखते ही इनकी आवाज में बदलाव आ जाता है और अपने साथियों को ये भौंक-भौंक कर अलर्ट करने लगती हैं। खतरा बिल्कुल नजदीक हो तो भौंकने का वॉल्यूम बेहद कम होता है। खतरा टलने के बाद ये अलग तरह से आवाज निकालकर राहत का संकेत देती हैं। मोटे तौर पर ये आम गिलहरियों जैसे ही आकार प्रकार की होती हैं लेकिन इनकी पूंछ की लंबाई जरा कम और झबरीली होती है। पूंछ का अंतिम सिरा काला होता है। कई लोग इन्हें काली पूंछ वाली गिलहरी भी कहते हैं। प्रेयरी गिलहरियों कॉलोनी बना कर रहती हैं। इनका आकार डेढ़ फुट से दो फुट तक होता है और वजन लगभग 400 ग्राम से 1 किलो तक हो सकता है। इनके घर को कोटरी कहा जाता है। यहीं से अपना घोंसला बनाती हैं। इन्हें घास और जंगली वनस्पति खाना अच्छा लगता है। कठोर बीजों को भी ये आसानी से तोड़ लेती हैं। अनजाने में ही ये गिलहरियां इधर-उधर बीज बिखेर देती हैं जिनसे पेड़ पौधे उग जाते हैं। ये पेड़ों या जमीन पर, दोनों जगह आराम से रह लेती हैं। जंगली गिलहरी का प्रजनन काल मार्च से मई माह में होता है। यह साल में एक बार ही प्रजनन करती है। इसके बच्चे गर्भ में 43 दिन रहते हैं। एक बार में इनके तीन से पांच बच्चे हो सकते हैं। 10 हफ्ते बाद बच्चे बड़े हो जाते हैं और भोजन की व्यवस्था के लिए अपनी मां के साथ जाने लगते हैं। आजकल इस प्रजाति की गिलहरियां कम होती जा रही हैं। इसके दो कारण हैं, एक तो ये खेतों को काफी नुकसान पहुंचाती हैं और दूसरा इनका मांस बहुत स्वादिष्ट होता है। इसलिए मनुष्य इनका शिकार बहुत करते हैं। जल्द ही इनके संरक्षण के लिए कुछ न दिया गया तो यह प्रजाति विलुप्त भी हो सकती है।

अनियमित ट्रैफिक, अवैध पार्किंग का शिकार राजतिलक रोड़ बाजार

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। शहर के व्यस्त इलाके में स्थित शहर के सबसे पुराने बाजारों में से एक राजतिलक रोड़ बाजार के व्यापारियों को अनियमित ट्रैफिक और वाहनों की अवैध पार्किंग के कारण विभिन्न प्रकार की समस्याओं से जूझना पड़ रहा है।
राजतिलक रोड ट्रेडर्स एसोसिएशन के प्रधान रोमेश गुप्ता ने कहा कि बाजार के आस-पास में प्रशासन द्वारा पार्किंग की कोई व्यवस्था ना किए जाने के कारण व्यापारियों और ग्राहकों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ता है। उन्होंने कहा कि अनियमित ट्रैफिक बाजार की सबसे बड़ी समस्या है। उन्होंने कहा कि अगर बाजार में परेड की ओर से कोई चार पहिया वाहन अंदर ना आए तो सिटी चौक तक जाम मुक्त क्षेत्र बन जाएगा। एसोसिएशन के प्रयासों से 12 वर्ष पूर्व एक ट्रैफिक कर्मी तैनात किया गया था। उन्होंने कहा कि यहां 2-3 माह से अधिक कोई ट्रैफिक कर्मी रहने ही नहीं दीया जाता है। यहां तैनात किए गए ट्रैफिक कर्मी का 2 माह के बाद ही तबादला कर दिया जाता है। ट्रैफिक कर्मी और पुलिस कर्मी ना होने के कारण बाजार में अवैध पार्किंग किए जाने और वाहनों के बेरोक-टोक आने के कारण बाजार में अक्सर जाम लग जाता है। गुप्ता ने कहा कि अधिकारियों के नकारात्मक रूख के चलते बाजार में सुचारू ट्रैफिक की हर योजना नाकाम रही है। हर अधिकारी जमीनी स्तर पर ध्यान दिए बिना बस अपनी ही थ्योरी लागू करना चाहता है। उन्होंने कहा कि बाजार के व्यापारियों को जाम के कारण काफी असुविधा का सामना करना पड़ता है। गुप्ता ने मांग की कि पेरड में स्थित जम्मू नगर निगम की 6.5 कनाल भूमि पर मल्टी स्टोरी पार्किंग स्थल का निर्माण किया जाना चाहिए। इससे ओल्ड सिटी की ट्रैफिक समस्या का समाधान हो जाएगा। एसेसिएशन के वरिष्ठ उप-प्रधान अशोक कुमार  का कहना है कि बाजार के आस-पास पार्किंग की कोई व्यवस्था ना होने के कारण बाजार में अवैध पार्किंग की जाती है। उन्होंने कहा कि बाजार में आने वाले ग्राहकों द्वारा परेड चौक के निकट वाहन लगाने पर ट्रैफिक पुलिस द्वारा वाहन क्रेन से उठा लिया जाता है। जिसके परिणामस्वरूप वह ग्राहक दोबारा बाजार में आता ही नहीं है। एसोसिएशन के उप-प्रधान अजय कुमार ने कहा कि बाजार में बिजली और टेलीफोन की नीचे तक लटकी हुई तारें भी परेशानी का कारण बनी हुई हैं। संबंधित अधिकारियों से बार-बार अनुरोध किए जाने के बावजूद तारों को ठीक नहीं किया जा रहा है। उन्होंने मांग की कि बाजार में बाजार में अंडरग्राउंड वायरिंग करवाकर बाजार में असुविधा का कारण बन रहे तारों के जाल को हटाया जाए।

बुधवार, मई 25, 2016

बेरोजगार युवाओं के लिए एक आर्दश : तारा चंद शर्मा

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। प्रतिस्पद्र्धा के दौर में जब हर क्षेत्र में गलाकाट स्पद्र्धा है,युवाओं में सरकारी नौकरियों में आई कमी से तेजी से बढ़ती हुई बेरोजगारी के कारण युवाओं में हताशा फैली है, तभी अचानक एक ऐसा चेहरा नजर आता है, जिसने अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए राह का निर्माण भी खुद ही किया है। यह हैं तारा चंद शर्मा जिन्होंने बेरोजगार युवाओं के लिए एक आर्दश स्थापित किया है।
1989 में अखनूर तहसील के चौकी चौरा क्षेत्र के बुध चारियां गांव के निवासी तारा चंद शर्मा ने बेरोजगारी से निजात पाने के लिए जम्मू का रूख किया। उन्होंने शहर के अति-व्यस्त शालामार रोड़ पर सड़क किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे अपनी छोटी-सी दुकान सजा दी। आज करीब 27 वर्ष बाद उनकी यह दुकान इस क्षेत्र की एक प्रमुख पहचान बन गई है। लोग दूर-दूर से उनके कुलचे खाने आते हैं। वर्ष 2000 में उन्होंने न्यूट्री कुलचा तैयार करना शुरू किया तो उसने उनकी लोकप्रियता को और बढ़ा दिया। प्रतिदिन सुबह 10.30 बजे वह अपनी दुकान सजा लेते हैं और करीब तीन बजे तक उनके यहां कुलचे समाप्त हो जाते हैं। उनके कुलचों के हजारोंं मुरीद है। उनके द्वारा पारंपरिक मसालों से तैयार किए गए कुलचे जहां मैकडोनाल्ड जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के मंहगे बर्गर से टक्कर ले रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ ये स्वादिष्ट कुलचे बेरोजगार युवाओं को भी यही संदेश दे रहे हैं कि सरकारी नौकरी का इंतजार करने से बेहतर कोई छोटा-सा ऐसा रोजगार शुरू किया जाए, जिससे उनका और उनके परिजनों का पालन-पोषण हो सके।
तारा चंद शर्मा प्रतीक है डुग्गरवासियों की जीवटता एवं धैर्य का। अनेक शुरूआती समस्याओं का मुकाबला करते हुए उन्होंने अपनी इस छोटी-सी दुकान को शहर के प्रतिष्ठित रेस्टोरेंटों के मुकाबले पर ला खड़ा किया है।
जिंदादिल व्यक्तित्व के धनी तारा चंद अपनी सफलता का श्रेय अपने परिवार को देते हैं। उनकी पत्नी पुष्पा सुबह जल्दी ही जरूरी सामग्री तैयार करने में उनकी मदद करती है। 10वीं तक शिक्षा प्राप्त तारा चंद अपने दोनों बच्चों विवेक एवं नीतिका को उच्च शिक्षा दिलवाने के इच्छुक है।
राज्य के बेरोजगार युवाओं की उम्मीद के प्रतीक तारा चंद कहते है कि युवाओं को सरकारी नौकरी का इंतजार करने के बजाय आत्मनिर्भर बनने के लिए स्वयं का रोजगार छोटे स्तर पर शुरू कर बेरोजगारी से निजात पाने की कोशिश करनी चाहिए। उनका कहना है कि अगर कुछ करने की इच्छा हो तो सफलता जरूर मिलती है।

अन्न-जल की बर्बादी पर लगाम लगाना जरूरी

मिथिलेश कुमार सिंह
एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में जितना भोजन बनता है, उसका एक तिहाई, यानि 1 अरब 30 करोड़ टन भोजन बर्बाद चला जाता है। ऐसी ही एक अन्य रिपोर्ट में यह बात सामने आयी है कि 'बढ़ती सम्पन्नता के साथ खाने के प्रति लोग और भी असंवेदनशील होते जा रहे हैं'। जाहिर है, पानी और भोजन मनुष्य की दो मूलभूत जरूरतों में शामिल है और अगर इसके प्रति कोई व्यक्ति संवेदनशील नहीं है तो फिर विवश होकर उसकी लापरवाही पर ध्यान जाता ही है। विश्व खाद्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में प्रतिदिन 20 हजार बच्चे भूखे रहने को विवश हैं, जबकि हकीकत में यह संख्या कहीं ज्यादा है। अगर यही आंकड़ा भारत के सन्दर्भ में देखें तो विश्व भूख सूचकांक में हमारा स्थान 67वां है और यह बेहद शर्मनाक बात है कि भारत में हर चौथा व्यक्ति भूख से सोने को मजबूर है। जाहिर है, आंकड़ों को देखने पर कई बार रोंगटे खड़े हो जाते हैं, किन्तु हम हैं कि अपनी लापरवाही छोडऩे को तैयार नहीं होते। इसी क्रम में, जब कभी हम अपने दोस्तों को खाने पर बुलाते हैं या घर में कोई पार्टी रखते हैं तो, मेहमानों के लिए ढेर सारे व्यंजन बनाते हैं। लेकिन कई बार हमें इस बात का अंदाजा नहीं होता है कि कितने लोग आएंगे और कितने लोगों के लिए कितना खाना बनना है और इसकी वजह से बहुत सारा खाना बच जाता है जिसे स्टोर करना संभव नहीं होता है और अंतत: सारा खाना कूड़े में जाता है। क्या वाकई थोड़ी सावधानी और प्लॉनिंग के साथ चलकर हम इन नुकसानों से बच नहीं सकते हैं?
इन्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ  पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में हर साल 23 करोड़ दाल, 12 करोड़ टन फल और 21 करोड़ टन सब्जियां वितरण प्रणाली में खामियों के चलते खराब हो जाती हैं। जाहिर है ऐसे आंकड़े कई बार हमें क्रोध से भर देते हैं, किन्तु सबसे बड़ा सवाल यही है कि व्यक्तिगत स्तर पर हम 'अन्न की बर्बादी' को किस प्रकार न्यूनतम कर सकते हैं? हमारे देश में अन्न को देवता माना जाता है और उसकी पूजा होती है, इसलिए खाने को बर्बाद करना एक तरह से पाप माना गया है। ये कोई एक दिन या एक घर की ही बात नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे ये बुरी आदत लोगों के जीवन का हिस्सा-सी बन गयी है। संपन्न वर्ग तो खाने को बर्बाद करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझता है, जबकि देश में एक ओर जनता भूख से बेहाल भी है। चूंकि भारत एक ऐसा देश है जहाँ उत्सव, त्यौहार, शादी-ब्याह लगातार चलते ही रहते हैं और इन अवसरों पर भारी भीड़ भी इक_ा होती है, तो जाहिर सी बात है इन भीड़ के द्वारा खाना भी उतना ही बर्बाद किया जाता है। एक सर्वे के अनुसार अकेले बेंगलुरु में एक साल में होने वाली शादियों में 943 टन पका हुआ खाना बर्बाद कर दिया जाता है। बताते चलें कि इस खाने से लगभग 2.6 करोड़ लोगों को एक समय का सामान्य भारतीय खाना खिलाया जा सकता है। यह केवल एक शहर का आंकड़ा है, जबकि हमारे देश में 29 राज्य हैं। जाहिर है शादियां और फंक्शन्स तो हर राज्य के हर शहर में होती हैं और अब आप खुद ही अंदाजा लगा सकते हैं कि हर साल होने वाले अन्न की बर्बादी की असल मात्रा क्या होती होगी। ये तो हो गया भीड़ भरे माहौल का हिसाब, जबकि रोजमर्रा की बर्बादी भी कुछ कम नहीं है। जैसे ऑफिस के कैंटीन, स्कूल के लंचबॉक्स, हर घर के किचन में बचने वाला खाना, इसका तो कोई हिसाब ही नहीं है।
 भारत जैसे देश में जहां लाखों लोग भूखे पेट सोने को मजबूर हैं ऐसे देश में हम अगर इस तरह बेतहाशा खाने को बर्बाद कर रहे हैं तो फिर हमें सभ्य नागरिक कहलाने का क्या हक है? क्या हमें एक बार इस बात का विचार नहीं करना चाहिए कि लाखों भूखे लोगों को बमुश्किल एक वक्त की रोटी नसीब होती है या नहीं? खाने को लेकर चाहत बढ़ती जाना और उस चाहत का बेलगाम हो जाना एक तरह की बीमारी है, लेकिन वक्त रहते इसे नियंत्रित करना एक चुनौती है।
 कई लोगों का मन खाने के विभिन्न व्यंजनों की ओर भागता है, जबकि उनके पेट की अपनी एक सीमा है। जब कभी हम भाई अधिक खाने की जिद्द से अपनी थाली भरते थे तो मुझे याद है कि पिताजी टोकते हुए कहते थे कि 'शरीर अपनी आवश्यकतानुसार ही खुराक लेगा, जबकि ज्यादा मात्रा में खाना ठूंसने पर वह बाहर निकाल देगा। जाहिर है, यह भी एक तरह से खाने के साथ-साथ स्वास्थ्य को नुकसान पहुँचाना भी है। अपने खाने-पीने की आदतों को कंट्रोल न करना 'ईटिंग डिसऑर्डर' की श्रेणी में आता है। हमें इसे जल्द से जल्द रोकना चाहिए। यही उचित है अपने स्वास्थ्य के लिए भी और राष्ट्रहित में भी, क्योंकि विशेषज्ञों के अनुसार साल 2028 तक भारत की अनुमानित आबादी 1.45 अरब हो जाएगी। ऐसे में अगर अभी से समस्या की रोकथाम पर हमारा ध्यान नहीं गया तो बहुत मुमकिन है कि भविष्य में खाने का संकट और बढ़ जाए। एक दिलचस्प आंकड़े की ओर अगर हम गौर करें तो जो भोजन हमारे देश में बर्बाद होता है, उसे उत्पन्न करने में 230 क्यूसेक पानी बर्बाद हो जाता है और इस पानी से दस करोड़ लोगों की प्यास बुझाई जा सकती है तो भोजन के अपव्यय से बर्बाद होने वाली राशि को बचाकर 5 करोड़ बच्चों की जिंदगियाँ संवारी जा सकती हैं।
 थोड़ा गौर से विचार करें तो, इस समस्या से निबटने के लिए हमें ज्यादा कुछ नहीं करना है, बल्कि अपनी रोजमर्रा की आदतों में थोड़ा सुधार करना है। जैसे, जब हम किसी पार्टी या समारोह में जाते हैं तो सिर्फ उतना ही खाना अपनी प्लेट में डालें जितना आप खा सकें। इसी तरह, पार्टी के आयोजक को भी चाहिए की अपनी पार्टी में एक बोर्ड लगा के विनम्रता से निवेदन करें कि खाने को बर्बाद न किया जाये। इसी क्रम में ऑफिस के कैंटीन या रेस्टोरेंट में उतना ही खाना आर्डर करें जितना आप खा सकें, कई बार दिखावे के चक्कर में हम ज्यादा खाना मंगाते हैं और बाद में छोड़ देते हैं, जो कूड़े में जाता है। घरेलू आदतों की बात करें तो, बच्चों के लंचबॉक्स में भी उतना ही खाना दें जितना बच्चा खा सकें और एक जिम्मेदार माता-पिता की तरह अपने बच्चों को खाने की बर्बादी के बारे में जागरूक करें। इसी तरह अपने किचन में भी उतना ही खाना पकाएं जितनी जरूरत हो और अगर खाना बच जाता है तो उसे फेंकने की बजाय अच्छे से फ्रिज में स्टोर करके अगले दिन इस्तेमाल कर लें। हालाँकि, बेहतर प्रबंधन तो यह होना चाहिए कि खाना बने ही उतना, जितनी आवश्यकता हो।
 इसी सन्दर्भ में, राजस्थान के एक गैर सरकारी संगठन (NGO) ने बहुत अच्छी पहल शुरू की है। यह है आयोजनों में बचे हुए खाने को प्रिजर्व करना और उस खाने को जरूरतमंदों को खिलाने का। ऐसे ही मुंबई में डिब्बेवालों ने रोटी बैंक की शुरुआत की है, जिसमें बचे हुए खाने को गरीब भूखे लोगों तक पहुँचाया जाता है। अब वक्त आ गया है कि मुंबई और राजस्थान की तर्ज पर हर शहर और कस्बे में 'रोटी बैंक' हो जिससे बचे खाने का उपयोग हो सके। इसी कड़ी में एक नायाब उदाहरण तब देखने को मिला, जब खाने की होने वाली बर्बादी को रोकने के लिए हाल ही में टाटा कन्सल्टेन्सी सर्विसेज (TCS
) ने एक अनोखा कदम उठाया और अपने ऑफिस स्टॉफ को एक बोर्ड पर लिख के रोज खाने की होने वाली बर्बादी के बारे में चेताया। मतलब, टीसीएस के कैंटीन में कितने किलो खाना रोज बर्बाद होता है और उससे कितने भूखे लोगों का पेट भरा जा सकता है, इस बारे में 'नोटिस बोर्ड' पर बताया जाने लगा।
जाहिर है, अगर ऐसे अभियानों को दूसरी जगहों, होटलों, कंपनियों में शुरू किया जाता है तो बड़े पैमाने पर जागरूकता नजर आ सकती है। कहना उचित रहेगा कि वक्त रहते अगर हम भी नहीं चेते तो आज जैसे पानी के लिए हाहाकार मचा है वैसे ही खाने को लेकर समस्या विकराल हो सकती है। ऐसे में बेहतर यही रहेगा कि 'भोजन और पानी' की बर्बादी हम कतई न करें, क्योंकि यहाँ सवाल सिर्फ हमारा ही नहीं, बल्कि हमारी अगली पीढिय़ों का भी है! भारत सरकार बेशक शादियों में व्यंजनों को सीमित करने पर 2011 की तरह चिंतित हो अथवा नहीं, किन्तु कम से कम हम तो भविष्य में अपने बच्चों और उनके बच्चों के लिए तो सजग हो जाएँ और इस बात पर दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाएँ कि हमें किसी भी हाल में 'अन्न-जल' की बर्बादी नहीं करना है और न ही होने देना है।

पत्रकारों से खबर तो चाहिए पर उनकी कोई खबर नहीं लेता

डॉ.संजीव राय
दुनिया भर में जो पत्रकार, लोगों की खबर लेते और देते रहते हैं वो कब खुद खबर बन जाते हैं इसका पता नहीं चलता है। पत्रकारिता के परम्परगत रेडियो, प्रिंट और टीवी मीडिया से बाहर, ख़बरों के नए आयाम और माध्यम बने हैं। जैसे जैसे ख़बरों के माध्यम का विकास हो रहा है, ख़बरों का स्वरूप और पत्रकारिता के आयाम भी बदल रहे हैं। फटाफट खबरों और 24 घंटे के चैनल्स में कुछ एक्सक्लूसिव दे देने की होड़, इतनी बढ़ी हैं कि ख़बरों और विडियो फुटेज के संपादन से ही खबर का अर्थ और असर दोनों बदल जा रहा है।
पत्रकारों और पत्रकारिता में रूचि रखने वालों के लिए ब्लॉग, वेबसाइट, वेब पोर्टल, कम्युनिटी रेडियो, मोबाइल न्यूज़, एफएम, अख़बार, सामयिक और अनियतकालीन पत्रिका समूह के साथ-साथ आज विषय विशेष के भी चैनल्स और प्रकाशन उपलब्ध हैं।
कोई ज्योतिष की पत्रिका निकाल रहा है तो कोई एस्ट्रो फिजिक्स की, कोई यात्रा का चैनल चला रहा है तो कोई फैशन का। फिल्म, संगीत, फिटनेस, कृषि, खान-पान, स्वास्थ्य, अपराध, निवेश और रियलिटी शो के चैनल्स अलग-अलग भाषा में आ चुके हैं। धर्म आधारित चैनल्स के दर्शकों की संख्या बहुतायत में होने का परिणाम ये हुआ कि पिछले 10-15 वर्षों में, दुनिया के लगभग सभी धर्मों के अपने-अपने चैनल्स की बाढ़ आ गई। जैसे-जैसे दर्शक अपने पसंद के चैनल्स की ओर गए, जीवन में इस्तेमाल होने वाली वस्तुओं के विज्ञापन भी उसी तजऱ् पर अलग-अलग चैनल्स और भाषा बदल कर उन तक पहुँच गए।
संचार क्रांति के आने और मोबाइल के प्रचार-प्रसार से ख़बरों का प्रकाश में आना आसान हो गया है। सोशल मीडिया के आने से एक अच्छी शुरुआत ये हुयी है कि ख़बरों को प्रसारित करने के अख़बार समूहों और चैनल्स के सीमित स्पेस के बीच आम लोगों को असीमित जगह मिली है। ख़बरें अब देश की सीमाओं की मोहताज नहीं रही हैं। ख़बरों की भरमार है। मोबाइल ने 'सिटीजन जर्नलिज्म' को बढ़ावा दिया है और आज मोबाइल रिकॉर्डिंग और घटना स्थल का फोटो, ख़बरों की दुनिया में महत्वपूर्ण दस्तावेज़ की तरह उपयोग में आ रहा है। लेकिन मीडिया की इस विकास यात्रा में, पत्रकारों के  जीवन में क्या बदलाव आया है?
दुनिया के स्तर पर सबके अधिकारों की बात करने वाले,पत्रकारों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं। जर्नलिस्ट्स विदाउट बॉर्डर की रिपोर्ट के मुताबिक 2014 में 66 पत्रकार मारे गए थे और इस तरह पिछले एक दशक में मारे जाने वाले पत्रकारों की संख्या 700 से ऊपर बताई जाती है। 66 मारे गए पत्रकारों में, बड़ी संख्या सीरिया, उक्रेन, इराक़, लीबिया जैसे देशों में मारे गए नागरिक पत्रकार और मीडिया कर्मियों की थी। ब्लॉग ख़बरों और विचार अभिव्यक्ति के एक नए मॉडल के रूप में उभर रहा है। 2015-2016 में बांग्लादेश से कई ब्लॉगर्स की हत्या की खबरें आई हैं जो चिंताजनक हैं।
कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स के अनुसार, 70 प्रतिशत रिपोर्टर/कैमरा मैन, युद्ध और हिंसा की खबर कवर करने के दौरान मारे जाते हैं। साहसिक कार्य के दौरान हुयी हिंसा के शिकार ज्य़ादातर पत्रकार किसी एक अख़बार या चैनल्स के नहीं होते हैं। कभी 'स्ट्रिंगर' तो कभी छोटे समूह के लिए काम करने वाले पत्रकारों की मौत के बाद उनके परिवार की सामाजिक सुरक्षा एक बड़ी चुनौती बन जाती है। अपने देश में भी समय-समय पर पत्रकारों के उत्पीडऩ की ख़बरें आती रहती हैं, कई बार घटना की सत्यता आरोप-प्रत्यारोप में दब जाती है।
पत्रकार की नौकरी जहाँ असुरक्षा की भावना से घिरी रहती है वहीँ पूरी दुनिया के स्तर पर राजनीतिक और संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है। रिपोर्टिंग के दौरान मारे जाने के साथ साथ, सोशल मीडिया पर उनको गाली और धमकी आम होती जा रही है। महिला पत्रकारों का काम और कठिन हो रहा है। उनके साथ सोशल मीडिया पर गाली और चरित्र हनन की घटनाएं बढ़ रही हैं। पत्रकारिता के प्रमुख सिद्धांतों का पालन, जिसमें निष्पक्षता और सत्य उजागर करना प्रमुख सिद्धांत में से है, चुनौती बनता जा रहा है। ईमानदार पत्रकारिता, इस बदले समय में काफी चुनौतीपूर्ण लग रही है। ये भी सच है कि पत्रकारों में भी एक वर्ग, अपने राजनीतिक और आर्थिक हितों के लिए ख़बरों और अपने रसूख का इस्तेमाल करता है और जनता को गुमराह करता है।
क्या पत्रकारों की सुरक्षा और उनके अपने अधिकार की आवाज सुनी जाएगी? क्या महिला पत्रकारों को निर्भीक होकर अपना काम करने दिया जायेगा? अपहरण, हत्या, हिंसा का जोखिम लेकर दुनिया भर के पत्रकार तो ख़बरें हमारे बीच लाते हैं लेकिन उनकी खबर कौन लेगा?

कश्मीर में आत्महत्याओं के बढ़ते मामले चिंताजनक

सुरेश एस डुग्गर
धरती का स्वर्ग अर्थात कश्मीर अब आत्महत्याओं का स्वर्ग भी बन गया है। आतंकवाद से जूझ रहे सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के आंकड़े ही अभी तक लोगों को चौंका रहे थे लेकिन नागरिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की संख्या अब ज्यादा बढ़ रही है। कश्मीरियों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के पीछे बेरोजगारी से लेकर घरेलू समस्याएं तक के कारण गिनाए जा सकते हैं।
अगर सरकारी आंकड़ों पर जाएं तो कश्मीर में आतंकवादी हिंसा का ग्राफ नीचे लुढ़कता जा रहा है। यह खुशी की बात कही जा सकती है। लेकिन चिंता का विषय कश्मीर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े हैं। यह आत्महत्याएं अगर कश्मीर में तैनात सैनिकों की हैं तो कश्मीरी युवकों व युवतियों की भी हैं जो कई कारणों से आत्महत्या कर रहे हैं।
केंद्र सरकार की चिंता का विषय कश्मीरी नागरिकों द्वारा आत्महत्या करना है। उसकी चिंता का विषय सैनिकों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याएं भी हैं जिनमें से 90 प्रतिशत आतंकवादग्रस्त कश्मीर में हुई हैं और इनमें लगातार हो रही बढ़ोत्तरी को रोकने के सभी प्रयास नाकाम ही साबित हो रहे हैं। कश्मीर विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर शमशुन निसा की स्टडी कहती है कि 9 सालों में 1678 कश्मीरियों ने आत्महत्या का रास्ता चुना है। तो तीन सालों के दौरान 768 सैनिकों ने आत्महत्या कर ली। इनमें वे आंकड़े शामिल नहीं हैं जिन जवानों या अधिकारियों की मौतें अपने साथियों द्वारा की गई गोलीबारी से हुई हों।
स्टडी कहती है कि पिछले साल कश्मीर में नागरिकों के साथ-साथ सैनिकों की आत्महत्या का आंकड़ा चिंताजनक था। पिछले साल 300 कश्मीरियों ने आत्महत्या कर ली। इस साल अभी तक 37 सैनिकों ने भी आत्महत्या की है। जबकि आत्महत्या के प्रयासों का आंकड़ा आतंकवादी मौतों से कई गुणा अधिक है। कश्मीर के अस्पतालों के लिए भी अब स्थिति बड़ी गंभीर हो गई है। अभी तक आतंकवादी हमलों के मरीजों की देखभाल में व्यस्त रहने वाले अस्पताल आत्महत्या की कोशिश करने वालों की संख्या से जूझने को मजबूर हैं। श्री महाराजा हरी सिंह अस्पताल को ही लें, हर साल वह एक हजार से अधिक उन मरीजों का इलाज कर रहा है जो आत्महत्या की कोशिश में कुछ खा लेते हैं या फिर अपने आपको जख्मी कर लेते हैं।
 सरकारी मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर अरशद अहमद इनसे चिंतित हैं। उन्होंने एक स्टडी भी की है इन मामलों पर और यह स्टडी कहती है कि उनके अस्पताल के कैजुलीटी वार्ड में प्रतिदिन चार केसों को देखा जा रहा है और अन्य अस्पतालों में जाने वालों का आंकड़ा ही उपलब्ध नहीं है। उनके मुताबिक पिछले 3 सालों में ही आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आया है। यह उछाल कितना है, डॉ.अहमद ऐसे 18830 मामलों के बारे में स्टडी कर चुके हैं इन तीन सालों में जिनमें अगर महिलाएं सबसे अधिक थीं तो 25 से 34 साल के आयु वर्ग के लोग अधिक थे। रिकार्ड के मुताबिक महिलाओं ने सबसे अधिक आत्महत्याएं की हैं और कोशिशें भी। इस साल जनवरी से लेकर अभी तक के पुलिस रिकार्ड के मुताबिक सिर्फ एक अस्पताल में ही 280 महिलाओं ने आत्महत्याओं की कोशिश की जिनमें से 67 की मौत हो गई। स्टडी और रिकार्ड कहता है कि सबसे अधिक जिन महिलाओं ने आत्महत्या की या कोशिश की उनकी आयु 17 से 25 वर्ष के बीच थी और उनका अनुपात पुरूषों के साथ 1 पुरूष और 7 महिलाओं का था।
 आत्महत्याओं की संख्या में उछाल आखिर क्यों आया। निचोड़ यही निकलता है कि 1989 से जारी आतंकवाद ने कश्मीर के हर घर को झकझोर कर रख दिया है। नतीजतन घरेलू मोर्चे पर नाकाम होने वालों के लिए जिन्दगी से छुटकारा पाने का इससे अधिक आसान रास्ता नहीं है। कश्मीर विश्वविद्यालय में सोशियोलोजी पढ़ाने वाले बशीर अहमद डाबला के मुताबिक, आतंकवादी हिंसा ने आग में घी का काम किया है क्योंकि उसने आम नागरिकों को तनाव के सिवाय कुछ नहीं दिया है। यही कारण है कि जिन्दगी से मुक्ति पाने वाले कुछ निगल कर इह लीला समाप्त कर रहे हैं और फांसी लगा लेना तथा अपने आपको जला लेने की भी हिम्मत भी कई दिखा रहे हैं।
 हालांकि सिर्फ आतंकवाद को ही दोषी नहीं ठहराया जा सकता है क्योंकि आठवीं कक्षा के छात्र रियाज की आत्महत्या के मामले ने कइयों की आंखें खोली हैं। मात्र मोबाइल पाने की इच्छा पूरी न होने पर फंदे पर झूल जाने वाले रियाज की मौत ने यह भी स्पष्ट किया है कि रहन-सहन के बदलते तौर तरीके भी कुंठाओं को जन्म दे रहे हैं।
रिसर्च स्कॉलर की स्टडी कहती है कि सैनिकों और कश्मीरी नागरिकों की आत्महत्याओं के पीछे का तात्कालिक कारण घरेलू ही है। हालांकि कश्मीरी नागरिक आतंकवादी माहौल से ऊब कर भी मौत को गले लगा रहे हैं। जबकि आंकड़ों के मुताबिक, अन्य मुस्लिम देशों की बनिस्बत कश्मीर जैसे मुस्लिम बहुल क्षेत्र में आत्महत्याएं नया रिकार्ड बना रही हैं।
 आंकड़ों के मुताबिक, मुस्लिम देशों में प्रतिवर्ष एक लाख के पीछे आत्महत्या की दर 0.1 से 0.2 है पर कश्मीर में यह दर 15.2 है जो सभी के लिए चिंता का विषय बन गई है। इसमें चिंता का एक अन्य पहलू यह है कि कश्मीरी नागरिक ही नहीं बल्कि कश्मीर में तैनात सैनिक भी आत्महत्या के मामलों में नया रिकार्ड बना कर सबको चिंता में डाले हुए हैं। मनोचिकित्सक डॉ.हमीदुल्ला शाह कहते हैं कि कश्मीरी कई मामलों के कारण ऐसा कदम उठा रहे हैं और आतंकवाद ने इसमें सिर्फ बढ़ोत्तरी की है। वह कहते हैं कि असल में मानवाधिकार हनन के मामलों ने भी कश्मीरियों की सहनशक्ति के स्तर को कम कर दिया है जो आत्महत्या के रूप में सामने आ रहा है। उनके मुताबिक आतंकवादी हिंसा के माहौल में मनोवैज्ञानिक और शारीरिक विकास रूक जाने के कारण आदमी डिप्रेशन में चला जाता है। हालांकि वे कहते थे कि आतंकवादी हिंसा सीधे तौर पर कश्मीर में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार नहीं बल्कि उसके द्वारा पैदा होने वाले हालात ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं।
 और यह हालात क्या हैं, स्टडी स्पष्ट करती है जिसमें प्यार में नाकामी, वैवाहिक जीवन में तनाव और छात्रों द्वारा अपने अभिभावकों की आकांक्षाओं पर खरा नहीं उतरना भी है। ऐसे कारणों से ही रशीद बट अपने दो बच्चों को गंवा चुका है। उसकी 18 वर्षीय बेटी को आतंकवाद नहीं बल्कि सुसाइड का दानव लील गया। अपनी मां से किसी मुद्दे पर हुए झगड़े का परिणाम था कि उसने जेहलम में कूद कर जान दे दी और तीन दिनों के बाद जब उसका शव मिला तो उसका 22 वर्षीय भाई नूर बट इस सदमे को सहन नहीं कर पाया जिसने जहर निगल कर जान दे दी।
डॉक्टरों की स्टडी कहती है कि सोशियो-इकोनोमी कारण भी आत्महत्याओं के लिए जिम्मेदार है। इस कारण मनोचिकित्सकों से इलाज करवाने वालों की संख्या में जबरदस्त बाढ़ आ गई है। वर्ष 1989 में आतंकवाद की शुरूआत से पहले मनोचिकित्सकों को दिखाने वालों की संख्या प्रतिवर्ष 1700-1800 के बीच थी जिसमें अब 35 गुणा का इजाफा हुआ है। वैसे यह एक सच्चाई है कि कश्मीर में आत्महत्या की दर सारे देश में सबसे कम उस समय थी जब आतंकवाद नहीं था।
कश्मीरी डॉक्टर आत्महत्याओं के मामलों को तीन हिस्सों में बांटते हैं। सुसाइड, पैरा सुसाइड और अपने आपको क्षति पहुंचाना। मतलब आत्महत्या कर लेने वाले, कोशिश करने वाले और इस कोशिश में अपने आपको क्षति पहुंचाने वाले। लेकिन इतना जरूर है कि आत्महत्याओं पर होने वाले सभी सर्वेक्षण यह रहस्योदघाटन जरूर करते हैं कि आत्महत्या करने या कोशिश करने वालों में से ५० प्रतिशत कभी भी तनाव से मुक्ति पाने की खातिर मनोचिकित्सक से नहीं मिले। मनोचिकित्सक ही नहीं बल्कि समस्या के हल की खातिर वे कभी किसी डॉक्टर से भी नहीं मिले और उन्होंने परिवार वालों के साथ इसके प्रति संदेह भी नहीं होने दिया कि वे इतना बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं।
 जम्मू शहर में अब दरिया तवी और कश्मीर में दरिया जेहलम आत्महत्या के प्वाइंट जरूर बन गए हैं। कई लोगों को आत्महत्या करने की कोशिश करने के प्रयास में इन दरियाओं में कूदते हुए बचाया भी गया है। श्रीनगर के एसएसपी अहफद-उल-मुजतबा का कहना था कि बढ़ती आत्महत्याओं के लिए सामाजिक और तनाव पैदा करने वाली परिस्थितियां ही जिम्मेदार ठहराई जा सकती हैं। हालांकि जिन परिवारों के सदस्यों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया है वे अब किसी से बात करने को भी तैयार नहीं हैं। ऐसा भी नहीं है कि वे किसी से खौफजदा हों बल्कि इस्लाम में आत्महत्या करना गैर-इस्लामिक है और इसी कारण से प्रभावित परिवारों के लिए यह स्थिति पैदा हुई है।
 कश्मीर में बढ़ती आत्तहत्याओं से निजात पाने की खातिर अब मौलवियों और मुल्लाओं का भी सहारा लिया जा रहा है। मस्जिदों से इसके प्रति ऐलान किए जा रहे हैं लेकिन कामयाबी मिलती नजर नहीं आ रही। मौलवी शौकत अहमद शाह भी मानते हैं कि धार्मिक संगठनों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे लोगों को इस कुरीति के प्रति आगाह करें और ऐसा भयानक कदम उठाने से रोकें क्योंकि इस्लाम में इसकी इजाजत नहीं है।

श्री बलदेव जी मंदिर

जम्मू में धौंथली डक्की, स्थित ऐतिहासिक 'श्री बलदेव जी मंदिर' का निर्माण करीब 300 वर्ष पूर्व हुआ था। उल्लेखनीय है कि पूरे विश्व में श्री कृष्ण के बड़े भ्राता बलदेव
जी(बलराम जी) के कुछ मंदिरों में से एक यह है।

बड़ी चूक, जेडीए ने दी गलत जानकारी

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। आम लोगों को आवास मुहैया कराने वाले जेडीए यानी जम्मू विकास प्राधिकरण को अभी तक यह मालूम नहीं है कि पाकिस्तान के कब्जे वाला जम्मू-कश्मीर, गिलगिट व बालटिस्तान पर भारतीय संसद का क्या फैसला है।
दरअसल जेडीए ने वर्ष 2032 के लिए ड्रॉफ्ट किए गए मास्टर प्लॉन में पाक के कब्जे वाले उक्त इलाकों पर उसका शासन लिखा है, न कि उसका उन इलाकों पर गैरकानूनी कब्जा, जो भारतीय संसद ने सर्वसम्मति से 22 फरवरी 1994 को पारित किया था। इस फैसले में साफतौर पर कहा गया कि पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर के अलावा गिलगिट व बालटिस्तान, जो अभिवाजित जम्मू-कश्मीर का हिस्सा है, लेकिन पाकिस्तान ने गैरकानूनी कब्जा कर रखा है। लेकिन, हैरत की बात है कि जेडीए के रिवाइजड मास्टर प्लॉन जम्मू-2032 के ड्रॉफ्ट की प्रस्तावना के प्रथम पृष्ठ की तीसरी पंक्ति में लिखा है कि जम्मू-कश्मीर भारत संघ का उत्तर का अहम राज्य है, जो हिमालय की पहाडिय़ों से सटा है। दरअसल पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर व गिलगिट तथा बालटिस्तान पर पाकिस्तान का शासन दिखाने का मामला तब खुला जब हाल ही में जम्मू के 2032 के मास्टर प्लॉन को लेकर यहां एक उच्चस्तरीय बैठक हुई। इसमें जेडीए के वायस चेयरमैन मुबारक सिंह के अलावा जम्मू के गांधीनगर क्षेत्र से विधायक एवं विधानसभा अध्यक्ष कविंद्र गुप्ता, विजयपुर से विधायक एवं उद्योग मंत्री चंद्र प्रकाश गंगा के अलावा भाजपा के एमएलसी रमेश अरोड़ा, जम्मू के मंडलायुक्त डॉ.पवन कोतवाल तथा जम्मू के उपायुक्त सिमरनदीप सिंह आदि उपस्थित थे। जम्मू मेट्रोपालिटन रीजन (जेएमआर) यानी ग्रेटर जम्मू को लेकर तैयार किए गए 2032 के इस मास्टर प्लॉन में हालांकि कई कमियां हैं, लेकिन पीओके तथा गिलगिट बालटिस्तान पर पाकिस्तान का शासन लिखे जाने वाले घोर आपत्तिजनक वाक्य पर भाजपा एमएलसी रमेश अरोड़ा की नजर गई। उन्होंने इसको लेकर इस अहम बैठक में सवाल खड़े किए। 'दीपाक्षर टाइम्स' से बात करते हुए एमएलसी रमेश अरोड़ा ने कहा कि उन्होंने जेडीए वाइस चेयरमैन को इस संबंध में एक पत्र लिखकर कड़ा विरोध किया है। इस पत्र की प्रतिलिपि उन्होंने उपमुख्यमंत्री डॉ.निर्मल कुमार को भी भेजी है।

सिर्फ कागजों पर मौजूद हैं आयुर्वेदिक, यूनानी कॉलेज

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। तत्कालीन यूपीए-2 सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर  के लिए की गई आयुर्वेदिक और यूनानी कॉलेजों की घोषणा सिर्फ कागजों में ही मौजूद हैं, क्योंकि सात वर्ष गुजरने के बावजूद इस घोषणा को अमलीजामा पहनाने के लिए सेन्ट्रल कौंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन (सीसीआईएम) से मंजूरी का इंतजार है।
विभागीय सूत्रों के अनुसार तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री गुलाम नबी आजाद ने जम्मू-कश्मीर के लिए दो डिग्री कॉलेजों की घोषणा की थी। लगभग 58 करोड़ रुपये की लागत से जम्मू क्षेत्र के अखनूर में आयुर्वेदिक कॉलेज और कश्मीर के गांदरबल में यूनानी मेडिकल कॉलेज शुरू करने की घोषणा की गई थी। घोषणा के दो वर्ष बीत जाने के बाद राज्य सरकार ने दोनों कॉलेजों के भवनों का निर्माण कार्य शुरू करवाया और घोषणा की कि दोनों कॉलेज भवन का निर्माण कार्य वर्ष 2013-14 तक पूर्ण कर लिया जाएगा, लेकिन दिलचस्पी की बात है कि समय सीमा समाप्त हो जाने के दो वर्ष बाद भी निर्माण कार्य चल रहा है।
उसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने दावा किया कि दोनों व्यावसायिक कॉलेजों में बीएएमएस और बीयूएमएस डिग्री पाठ्यक्रम के पहले बैच 2014-15 के शैक्षणिक सत्र से शुरू कर दिए जाएंगे, लेकिन राज्य सरकार इनके पंजीकरण का मुद्दा केंद्र सरकार के समक्ष उठाने में नाकाम रही। उनका प्रशासन,भारत सरकार की सीसीआईएम के पास औपचारिकताएं,जो प्रत्येक वर्ष 1 अप्रैल से 30 अप्रैल तक के बीच कम समय अवधि में प्रस्तुत की जाती है, प्रस्तुत नहीं कर पाया।
अब 2016 में विभाग ने पंजीकरण के लिए सीसीआईएम को औपचारिकताएं प्रस्तुत की है, लेकिन केंद्र सरकार द्वारा अभी तक अनुमति नहीं दी गई हैं। सूत्रों ने बताया कि हालांकि दोनों कॉलेजों के बुनियादी ढांचे को लगभग पूरा कर लिया गया है, लेकिन डिग्री कोर्स के शुरू करने की कुछ औपचारिकताओं और आवश्यकताओं को अभी भी विभाग द्वारा पूरा किया जा रहा है।
कॉलेजों को कई और औपचारिकताओं को, जिनमें विश्वविद्यालय से संबद्धता का अनुदान शामिल हैं, पूरा करना है, अधिकारियों ने गत वर्र्ष राज्य के दोनों राजकीय विश्वविद्यालयों के समक्ष मामला उठाया था और उम्मीद है कि इस वर्ष इसे स्वीकृति मिल जाएगी। कॉलेजों में पाठ्यक्रम शुरू करने के लिए, प्रोफेसरों, रिडरों, पैरा मेडिकल स्टॉफ आदि सहित लगभग 500 लोगों की जरूरत है, लेकिन राज्य सरकार ने अभी तक कर्मचारियों की संख्या को मंजूर नहीं किया है, इससे स्पष्ट है कि अगर केंद्र सरकार द्वारा अनुमति दी जाती है तो राज्य के दोनों कॉलेजों में  चालू शैक्षणिक सत्र से पाठ्यक्रम शुरू करना संभव नहीं होगा।

बुलंद हौसले से तय किया कामयाबी का सफर : गिरधारी चाट हाऊस

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। 63 वर्ष पूर्व स्व.गिरधारी लाल ने बुलंद हौंसलों के साथ शहर के कच्ची छावनी इलाके में छाबा लगाकर कचालू चाट का छोटा-सा काम शुरू किया था। धीरे-धीरे उनकी जायकेदार चटपटी चाट की शोहरत पूरे शहर और आस-पास के इलाकों तक फैलने लगी। उनका मानना था कि कोई काम छोटा नहीं होता है, उसे बड़ा बनाने के लिए बस कड़ी मेहनत, ईमानदारी और हौंसले की जरूरत होती है। लगभग 20 वर्ष के बाद उन्होंने रेहड़ी पर स्वादिष्ट कचालू चाट की बिक्री शुरू की। इस दौरान उनकी चाट के प्रशंसकों की तादाद में भी बढ़ोतरी होती गई। वर्ष 1997 में उन्होंने कच्ची छावनी क्षेत्र में ही दीवाना मंदिर के पास अपनी दुकान 'गिरधारी चाट हाऊस' के नाम से शुरू की। उनके निधन के बाद उनके पुत्र राम प्रकाश ने काम संभाल लिया है। अब तो उनकी तीसरी पीढ़ी के रूप में उनका पौत्र रोहित भी काम में हाथ बटाता है। राम प्रकाश ने बताया कि पिताजी द्वारा बताए गए मसालों के मिश्रण का इस्तेमाल कर हम आज भी कचालू चाट का स्वाद बरकरार रखे हुए हैं। जिस प्रकार से वह ईमानदारी से शुद्ध मसालों का इस्तेमाल करते थे, वह भी उसी तरह से अपने ग्राहकों की कसौटी पर खरे उतरने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि उनकी दुकान पर मिर्च वाली कचालू चाट, बगैर मिर्च वाली कचालू चाट, केले की चाट, कुलचा और आइसक्रीम की बिक्री की जाती है। राज्य के विभिन्न हिस्सों में होने वाले विवाह समारोहों आदि में भी उनकी सुप्रसिद्ध कचालू चाट के स्टॉल लगाने की फरमाइश भी पूरी करने की कोशिश की जाती है। राम प्रकाश ने कहा कि पिताजी कहते थे कि अपने काम से प्रेम करो और ग्राहकों से नम्रता से बात करों, तो कामयाबी जरूर मिलेगी। यही वजह है कि दूर-दूर से आने वाले ग्राहक स्वादिष्ट कचालू चाट का स्वाद लेने के लिए उनकी दुकान पर  दस्तक देते हैं। उनकी दुकान पर जो एक बार आता है वह उनके नियमित ग्राहकों में शामिल हो जाता है। 

भीषण पेयजल संकट से लोग कर रहे पलायन

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। राज्य के दूर-दराज के क्षेत्रों में पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं मुहैया करवाने के सरकार के ऊंचे दावों के विपरित पुंछ जिले में ऊंचाई वाले इलाकों में रहने वाले लोगों ने पेयजल की तलाश में निचले इलाकों की ओर पलायन करना शुरू कर दिया हैं।
सूत्रों ने बताया कि जिले के दूर दराज के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पानी की कमी का सामना कर रहे लोगों ने पानी की तलाश में नीचे की ओर आना शुरू कर दिया है। वे लोग अपनी पेेयजल जरूरतों को पूरा करने के लिए तालाबों और नदियों के किनारे के पास डेरा डाले हुए हैं।
सूत्रों का कहना है जिले में पीएचई विभााग के बहुत-से पंप खराब पड़े हुए हैं, लेकिन गहरी नींद में सोया पीएचई विभाग उन्हें सुचारू बनाने में नाकाम साबित हो रहा है। जिले में कई जलापूर्ति योजनाएं काम नहीं कर रही हैं। जबकि कुछ क्षेत्रों में पानी की आपूर्ति पाइपें टूटी होने के कारण पानी बेकार बह रहा है, तो अन्य इलाकों में  पानी की भारी किल्लत है।
सूत्रों ने कहा कि संबंधित अधिकारी इस तथ्य को भली-भांति जानते हैं कि गर्मी के मौसम के दौरान जिले में विशेषरूप से ऊपरी इलाकों और कंडी क्षेत्रों में पेयजल की कमी की समस्या सामने आती है। लेकिन जल आपूर्ति योजनाओं पर करोड़ों रूपए खर्च किए जाने के बावजूद कोई ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। अगर कोई उनसे यह पुछे कि यह जनता का धन कहां जा रहा है? 

हीमोग्लोबिन के संबंध में जन-जागरूकता की जरूरत

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। आरटीमिस हास्पिटल्स के डॉ.राहुल भार्गव का कहना है कि हीमोग्लोबिन के संबंध में जनता को जागरूक किए जाने की जरूरत है। क्यांकि मानव शरीर में हीमोग्लोबिन का उचित स्तर थैलेसीमिया और कैंसर जैसी बीमारियों के विरूद्ध प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि कर देता है।  
एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए डॉ.भार्गव ने कहा कि अगर आप को थकावट महसूस होती है, या व्यवहार में चिड़चिड़ापन आ गया है तो हो सकता है कि आपके शरीर में हीमोग्लोबिन का स्तर कम हो। उन्होंने कहा कि लोग हीमोग्लोबिन को ज्यादा महत्व नहीं देते हैं। अगर हमें सीने में दायीं और दर्द महसूस होता है तो हम तुरंत ईसीजी करवाते हैं, लेकिन हम अगर उपरोक्त लक्ष्ण महसूस करते है तो भी हम हीमोग्लोबिन की जांच नहीं करवाते हैं।
डॉ.भार्गव ने कहा कि इस परिचर्चा का उद्देश्य एनीमिया के संबंध में डॉक्टरों और आम जनता को जागरूक करना है। महिलाओं में हीमोग्लोबिन अधिक से अधिक 12 और पुरूषों में यह 13 होना चाहिए। हीमोग्लोबिन का कम होना मुख्यतया: आयरन एवं पोषक तत्वों की कमी से होता है। अगर इसका उपचार शीघ्र करवा लिया जाए तो पेट के कैंसर, सीलिएक रोग और ब्लड कैंसर जैसे अन्य रोगाों पर जल्द नियंत्रण पाया जा सकता है। अगर इसकी पहले और दूसरे चरण में ही जांच करवा ली जाए तो 70 से 80 प्रतिशत लोग इन बीमारियों से छुटकारा पा लेंगे।
डॉ. भार्गव ने कहा कि हमारा मुख्य उद्देश्य डॉक्टरों और आम जनता को थैलेसीमिया के संबंध में जागरूक करना है। थैलेसीमिया माता-पिता से आनुवांशिक रूप से फैलता है। अगर माता-पिता दोनों को थैलेसीमिया की कम शिकायत है तो इस बात की २५ प्रतिशत तक संभावना होती है कि बच्चा भी थैलेसीमिया से ग्रस्त हो सकता है। अगर थैलेसीमिया की ज्यादा शिकायत हो तो बच्चे को ६ माह की उम्र से ही ब्लड ट्रांसफ्यूजन से पता चल जाता है। कई मामले बेहद जटिल हो जाते हैं। इसलिए यह बेहद जरूरी है कि थैलेसीमिया की कम शिकायत हो तो गर्भावस्था के समय पति-पत्नी दोनों अपना विशेष परीक्षण करवाए। अगर थैलेसीमिया की ज्यादा  शिकायत हो तो भ्रूण को निरस्त किया जाना चाहिए। थैलेसीमिया की जांच जरूरी कर हम बच्चे को जीवन भर के दर्द से बचा सकते हैं। इसलिए हमें  हीमोग्लोबिन का स्तर महिलाओं में 12 और पुरुषों में 13 के बनाए रखने पर ध्यान देना है। इससे थैलेसीमिया और कैंसर होने की संभावना काफी कम हो जाती है।

लचर बीएसएनएल सेवा से ग्राहकों का परेशान होना जारी

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
पुंछ। पिछले कुछ महीनों से भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की खराब सेलुलर कनेक्टिविटी पुंछ जिले में लाखों ग्राहकों के लिए असुविधा का कारण बन गई है।
गौरतलब है कि बीएसएनएल राज्य में सेलुलर सेवा उपलब्ध करवाने वाली पहली कंपनी है और राज्य में कंपनी के पास सबसे ज्यादा पोस्टपेड ग्राहकों का आधार रहा है। इसके बावजूद बीएसएनएल उपभोक्ताओं की उम्मीदों पर खरा उतरने में नाकाम रही है।
बीएसएनएल के उपभोक्ताओं ने कहा कि बीएसएनएल के अपने ही 'अव्यवसायिक आचरण' और 'ढिलाई' की वजह से पिछले कुछ हफ्तों से सेवा बद से बदतर हो चुकी है। सिर्फ फोन कनेक्टिविटी ही नहीं, बल्कि इंटरनेट सेवाओं की भी हालत खराब है। कई इंटरनेट कैफे मालिकों का कहना है कि इसका उनके कारोबार पर असर पड़ रहा हैं।
एक साइबर कैफे के मालिक का कहना था कि इंटरनेट सेवाएं एक माह में पंद्रह से अधिक दिनों के लिए बंद रहती हैं। उन्होंने कहा कि निजी मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियों से कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद बीएसएनएल सेवा में सुधार के कोई लक्षण दिखाई नहीं  देते, बल्कि यह और अधिक परेशान करने लगी है। उन्होंने कहा कि उपभोक्ताओं की बार-बार शिकायतों के बावजूद,हर शिकायत को नजरअंदाज किया जाता है।
एक अन्य उपभोक्ता रमन कुमार ने कहा कि एक बार जब आप एक नंबर डायल करते हैं तो केवल एक रिकॉर्डड आवाज सुन सकते हैं 'यह नंबर मौजूद नहीं है, कृपया आप नम्बर की जाँच करें' या 'आपके द्वारा मिलाया गया नम्बर कवरेज क्षेत्र से बाहर हैं'।
बीएसएनएल से नाराज एक अन्य उपभोक्ता ने कहा कि केन्द्र सरकार द्वारा मोबाइल नंबर पोर्टेबिलिटी शुरू करने के बाद अधिकांश बीएसएनएल उपभोक्ता अन्य निजी मोबाइल सेवा प्रदाताओं की ओर जा रहे हैं। स्थानीय लोगों का कहना है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति शहरी क्षेत्रों से भी बदतर है। इसलिए ज्यादार ग्रामीण बीएसएनएल को छोड़ कर निजी सेलुलर सेवा प्रदाताओं को चुन रहे हैं।
स्थानीय लोगों ने मांग की है कि सभी कार्यालयों में बीएसएनएल के बजाय निजी मोबाइल नेटवर्क कंपनियों द्वारा कार्य किया जाना चाहिए।

दिहाड़ीदारों के संघर्ष की अनदेखी कर रही सरकार

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। जिन दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों के दम पर पीएचई विभाग का सारा दारोमदार टिका हुआ है उन्हीं हजारों कर्मचारियों को अपनी मांगों को लेकर पिछले करीब दो माह से आवाज बुलंद करने को मजबूर होना पड़ रहा है। पीएचई विभाग के उच्चाधिकारी और राज्य सरकार उनकी जायज मांगों से भलि-भांति परिचित होने के बावजूद मूकदर्शकों की भांति व्यवहार कर रहे हैं। इन दैनिक वेतन भोगियों को गत कई वर्षों से मात्र आश्वासनों का झुनझुना थमाया जा रहा है।  
गौरतलब है कि पीएचई विभाग के 70 प्रतिशत से अधिक अस्थायी कर्मचारियों के पिछले करीब 2 माह से  हड़ताल पर होने के कारण पूरे जम्मू संभाग में आम जनता इस भीषण गर्मी में पेयजल किल्लत से परेशान हो रही है। सबसे बुरी हालत जम्मू, सांबा और कठुआ जिलों के कंडी क्षेत्रों,राजौरी,कालाकोट,कोटरांका,मेंढर(पुंछ),ऊधमपुर,रियासी और डोडा के कई हिस्सों में है। इन ग्रामीण क्षेत्रों में ७५ प्रतिशत से अधिक पीएचई कर्मचारी अस्थायी / दिहाड़ी मजदूर है। उनमें से ज्यादातर पिछले दो महीनों से काम नहीं कर रहे हैं, तो लोगों को भीषण गर्मी में 3-4 दिन बाद भी  पीने का पानी नहीं मिल रहा है। जम्मू शहर के कई इलाके भी पानी की भारी कमी से जूझ रहे हैं।
पीएचई विभाग के 70 प्रतिशत से अधिक अस्थायी कर्मचारियों की हड़ ताल को करीब 73 दिन हो चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद ना तो सरकार और ना ही पीएचई विभाग उनकी ज्वलंत मांगों की ओर ध्यान दे रहा है। आंदोलन कर रहे कर्मचारी मांग कर रहे हैं कि 1994 से दैनिक वेतन भोगी के रूप में काम कर रहे कर्मचारियों को नियमित करने के लिए उचित नीति तैयार की जाए, 48 माह से बकाया उनके भत्तों का भुगतान किया जाए। उनका कहना है कि राज्य सरकार द्वारा अनेक कमेटी, सब-कमेटी, हाई पावर कमेटी और स्टेट एडमिनिस्ट्रेटीव कौंसिल का गठन किए जाने के बावजूद हमारी चिरलंबित मांगों को पूरा नहीं किया जा रहा है। ऑल जे एंड के आई टी आई ट्रैंड एंड सीपी वर्कर्स के प्रधान तनवीर हुसैन का कहना है कि 7-8 माह पूर्व भी वित्त मंत्री एवं पीएचई मंत्री ने कहा था कि उनकी मांगों को २-३ माह में पूरा कर दिया जाएगा, लेकिन अभी तक इस संबंध में कोई कदम नहीं उठाया गया है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा कि अस्थायी कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर अपना संर्घष जारी रखेंगे। इस दौरान अगर कोई अप्रिय स्थिति सामने आती है तो उसकी जिम्मेदारी सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार की होगी।

3 वर्ष बाद भी सरकार तंबाकू उत्पादों पर प्रतिबंध लागू करने में विफल

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। मुंह के कैंसर के लिए प्रमुख कारण माने जा चुके चबाने वाले तंबाकू उत्पादों पर 3 वर्ष पूर्व प्रतिबंध लागू होने के बावजूद जम्मू-कश्मीर सरकार इसे जमीनी स्तर पर लागू करने में विफल रही है।
स्वास्थ्य विभाग में कार्यरत विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार 6 मार्च 2013 को इन उत्पादों की बिक्री, खरीद, भंडारण और यहां तक कि इन उत्पादों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। लेकिन संबंधित विभाग (स्वास्थ्य विभाग) के उदासीन रवैये के कारण चबाने वाले तंबाकू उत्पादों पर प्रतिबंध जमीनी स्तर पर लागू नहीं किया जा सका है। जिसके कारण विक्रेता, खुदरा विक्रेता और यहां तक कि थोक विक्रेता खुलेआम शिक्षा संस्थानों औैर स्वास्थ्य संस्थानों एवं केन्द्रों के बाहर इन प्रतिबंधित उत्पादों की बिक्री कर रहे हैं।
्रसूत्रों ने आगे बताया कि आदेश : एचडी / ड्रग / 58/2012 के द्वारा चबाने वाले तंबाकू उत्पादों पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया है और स्वास्थ्य विभाग, जम्मू नगर निगम, स्थानीय प्रशासन और प्रवर्तन एजेंसी (पुलिस) सहित सभी संबंधित विभागों को यह सुनिश्चित करने के निर्देश दिए है कि प्रतिबंध को पूर्ण रूप से लागू किया जा सके।
एक नागरिक ने कहा कि प्रतिबंध का यह प्रभाव हुआ  है कि इससे पहले हमें बाजार कीमतों पर गुटखा मिल जाता था, लेकिन तंबाकू उत्पादों पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद वो ही उत्पाद ज्यादा कीमत पर बेचा जा रहा है।
सूत्रों ने खुलाया किया कि शुरूआत में स्वास्थ्य विभाग ने सार्वजनिक स्थानों पर जाकर इन उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया जाना सुनिश्चित करने के लिए राजस्व विभाग, स्वास्थ्य विभाग और जम्मू नगर निगम के कुछ अधिकारियों के साथ एक टीम गठित की थी, लेकिन कुछ महीनों के बाद तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री द्वारा इस टीम को भंग करके प्रतिबंध को अप्रभावी कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया है कि सभी प्रवर्तन एजेंसियों राज्य भर में प्रतिबंध को लागू करने में बुरी तरह से नाकाम रही हैं।
जिसके कारण तस्कर  प्रवर्तन एजेंसियों की मदद से पड़ोसी राज्यों से राज्य में सभी चबाने वाले तंबाकू उत्पादों का आयात कर रहे हैं और इन उत्पादों पर सरकार को टैक्स भी नहीं दे रहे हैं। यहां तक कि पूर्ववर्ती सरकारें उन्हें दंडित के बजाय चबाने वाले तंबाकू उत्पादो की अवैध बिक्री पर मूक दर्शक बनी रही हैं।
सूत्रों ने कहा कि यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि नवीनतम ग्लोबल एडल्ट टोबैको सर्वे के अनुसार जम्मू-कश्मीर की 26.6 प्रतिशत आबादी  विभिन्न प्रकार के तंबाकू उत्पादों का इस्तेमाल कर रही है।

एकमात्र ब्रैथलाइजर के सहारे काम कर रही ट्रैफिक पुलिस

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। जहां एक तरफ शहर में नशा करके ड्राइविंग करने के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है, वहीं दूसरी ओर  ट्रैफिक पुलिस के पास  जांच करने के लिए पर्याप्त उपकरण तक नहीं है।
शहर में ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारू बनाए रखने के लिए जहां पुलिस के पास कर्मचारियों की कमी है, वहीं उसके पास ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन की जांच के लिए आवश्यक विभिन्न उपकरणों की भी कमी है। ट्रैफिक कर्मियों को सबसे खराब स्थिति का सामना सूर्यास्त के बाद करना पड़ता है,जब नशे में लोग निडर होकर वाहन चलाते हैं और शायह ही कोई उनकी जांच करता है।
हैरानी की बात है कि यातायात विभाग जम्मू के पास नशे में यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों की जांच करने के लिए केवल दो ब्रैथलाइजर है और उनमें से भी एक खराब पड़ा है।
यातायात विभाग में उच्च पदस्थ सूत्रों ने बताया कि आवश्यक उपकरणों की कमी के कारण विभाग सिर्फ बिना हेलमेट, सीट बेल्ट के बिना ड्राइविंग, काले शीशे, ओवर लोडिंग, गलत पार्किंग जैसे नजर आने वाले उल्लंघनों पर ही ध्यान दे रहा है।
ट्रैफिक पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि 'आवश्यक उपकरणों और कर्मचारी  उपलब्ध करवाने के लिए कई बार विभाग के उच्चाधिकारियों से अनुरोध किया गया, लेकिन मुझे लगता है कि उनकी भी कुछ अपनी मजबूरी है।'
उन्होंने कहा कि नशे में ड्राइविंग करने वालों की उचित जांच करने के लिए विभाग को कम से कम एक और ब्रैथलाइजर, एक अतिरिक्त वाहन और प्रत्येक जांच चौकी पर कम से कम 10 से अधिक लोगों की जरूरत है। अगर एक व्यक्ति को 30 मिलीलीटर या अधिक शराब पीकर ड्राइविंग करते हुए पकड़ा जाता है, तो रक्त में अल्कोहल की मात्रा की जांच हेतु उसे नजदीक के अस्पताल ले जाने के लिए कम से कम एक वाहन और तीन पुलिसकर्मिर्यों की जरूरत पड़ती है।
ट्रैफिक पुलिस के पास केवल 400 कर्मचारी है, जो कि आवश्यक कर्मचारियों का एक चौथाई भी नहीं है। विभाग अपने कर्मचारियों को सुबह 8 बजे से रात्रि 8 बजे तक की पारी में इस्तेमाल करता है। ऐसे में ट्रैफिक कर्मियों के पास जम्मू शहर में नजर ना आने वाले यातायात उल्लंघनों की अनदेखी करने के अलावा कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। 

रेहड़ी वालों के कारण अव्यवस्था का आलम

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू।  शहर की सड़कों पर अतिक्रमण रोकने और यातायात के सुचारू संचालन को सुनिश्चित करने के लिए जम्मू नगर निगम (जेएमसी)रेहड़ी-मुक्त क्षेत्र बनाने के अपने स्वयं के आदेश को लागू करने में नाकाम हो रहा है।
शहर के 20 बाजारों और सड़कों को रेहड़ी-मुक्त क्षेत्र घोषित करने के बावजूद कई स्थानों पर फल, सब्जी और जूस विक्रेता अपनी रेहडिय़ों से सुचारू यातायात के लिए समस्याएं पैदा करते देखे जा सकते हैं। हालांकि निगम अवैध रूप से शहर में चल रही रेहडिय़ों के खिलाफ नियमित रूप से अभियान संचालित करता है, लेकिन निगम अपने स्वयं के निर्णय को लागू करने में नाकाम हो रहा है। एक अनुमान के अनुसार शहर में लगभग 1000 रेहडिय़ां हैं।
अधिकांश शहर वासियों का कहना है कि वे इन रेहडिय़ों से अपनी आजीविका चला रहे लोगों के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन अधिकारियों को उनके लिए अलग क्षेत्र निर्धारित करने चाहिए। उन्होंने रेहड़ी मालिकों के खिलाफ बर्बर कार्रवाई किए जाने का विरोध किया।
सूत्रों के अनुसार  ट्रैफिक पुलिस ने भीड़भाड़ वाले क्षेत्रों से रेहड़ी वालों को कहीं ओर ले जाने का का प्रस्ताव किया था, लेकिन रेहड़ी वालों ने व्यापार में हानि होने का हवाला देकर प्रस्ताव का विरोध किया।
नागरिकों का कहना है कि रेहड़ी वालों के कारण न सिर्फ वाहनों की आवाजाही में रूकावट आती है, बल्कि कई बार तो वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए सड़क के बीच में आ जाते हैं। अगर जेएमसी ने रेहड़ी वालों के लिए विशेष क्षेत्रों के निर्माण का आदेश जारी किया है, तो उन्हें क्यों यहां काम करने दिया जा रहा है। रेहडिय़ों से पैदल चलने वालों को भी परेशानी होती है, क्योंकि उन्होंने फुटपाथों पर कब्जा जमा लिया है।
इसी बीच जेएमसी ने स्ट्रीट वैंडर्स (आजीविका का संरक्षण और स्ट्रीट वेंडिंग नियमन) अधिनियम 2014 के अंतर्गत पुनर्वास के लिए रेहड़ी वालों का पंजीकरण शुरू कर दिया है।
जम्मू नगर निगम ने अपने क्षेत्राधिकार के भीतर काम करने वाले रेहड़ी वालों से अपील की है वे अपना पंजीकरण कर वाले, क्योंकि पंजीकरण न करवाने वालों को काम करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

जम्मू संभाग के शिक्षा संस्थानों में ए.बी.वी.पी. पर अघोषित प्रतिबंध

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। राज्य की सत्ता में भारतीय जनता पार्टी द्वारा पहली बार भागीदारी करने के बावजूद जम्मू संभाग के सभी शिक्षण संस्थानों में संघ परिवार की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) पर अघोषित प्रतिबंध लगा दिया गया है।
गौरतलब है कि जहां तक सदस्यता का सवाल है, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद देश का सबसे बड़ा छात्र संगठन है। इस संगठन के जम्मू संभाग के सभी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य के  उप-मुख्यमंत्री निर्मल सिंह भी अभाविप के पूर्व प्रदेशाध्यक्ष रहे है। भाजपा के अधिकांश केंद्रीय नेताओं की पृष्ठभूमि भी अभाविप से संबंधित रही है।
राज्य विधानसभा अध्यक्ष कविन्द्र गुप्ता तथा स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा मंत्री बाली भगत हमेशा अभाविप के पूर्व कार्यकर्ता होने का दावा करते रहे हंै।
जम्मू विश्वविद्यालय के अधिकारियों द्वारा अभाविप को परिसर में कोई भी समारोह आयोजित करने की अनुमति देने इंकार के बाद राज्य के विभिन्न डिग्री कॉलेजों के प्रशासन ने इसका अनुसरण करते हुए अभाविप को अपने परिसरों से बाहर रखने का फैसला किया है।
कविन्द्र गुप्ता ने 'दीपाक्षर टाइम्स' से बात करते हुए अभाविप के साथ किए जा रहे व्यवहार की कड़ी आलोचना की है और इस मामले की जांच करवाने को कहा है।  उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रत्येक संगठन को अपनी गतिविधियां संचालित करने का अधिकार है। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अभाविप जैसे देश के प्रमुख छात्र संगठन के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है। गुप्ता ने कहा कि मुझे ऐसा कोई कारण समझ नहीं आ रहा कि अभाविप को अपनी गतिविधियां संचालित करने से रोका जाए।  सूत्रों ने कहा कि अभाविप की स्थानीय इकाई ने संगठन की आगामी राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक के लिए एक सार्वजनिक स्वागत समारोह आयोजित करने के लिए महिला कॉलेज गांधी नगर के अधिकारियों से अनुमति मांगी थी। सूत्रों ने बताया कि इस समारोह में उप-मुख्यमंत्री को मुख्यातिथि के तौर पर आमंत्रित करने के बावजूद अभाविप को अनुमति से इंकार कर दिया गया।  यह पता चला है कि महिला कॉलेज के अधिकारियों ने स्पष्ट कहा कि अभाविप जैसे संगठन को कॉलेज का माहौल खराब करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। सूत्रों ने बताया कि भाजपा के कुछ मंत्रियों द्वारा इस मामले में हस्तक्षेप किए जाने के बावजूद अभिनव थियेटर और कुछ अन्य सरकारी सभागारों में समारोह आयोजित करने की अनुमति देने से पहले ही इंकार कर दिया गया था। महिला कॉलेज प्रशासन के हवाले से सूत्रों ने कहा कि शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुखों को स्पष्ट निर्देश दे दिया है अभाविप को उनके संबंधित संस्थानों के परिसर में कोई भी समारोह आयोजित करने की अनुमति नहीं दी जाए। सूत्रों ने बताया कि जम्मू नगर निगम के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने जम्बू लोचन सामुदायिक हाल में अभाविप की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति की बैठक के आयोजन के लिए दी गई अनुमति को रद्द करने की कोशिश की थी। अभाविप के एक पदाधिकारी ने स्वीकार किया कि प्रशासन में कुछ तत्व अभाविप के साथ उचित व्यवहार नहीं कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम अपने संविधान और पंजीकरण प्रमाण पत्र दिखा सकते हैं, जिसमें यह स्पष्ट रूप से उल्लेेख किया गया है कि अभाविप एक गैर -राजनीतिक छात्र संगठन है। आवश्यक दस्तावेज प्रस्तुत करने के बावजूद शिक्षण संस्थानों में एक सार्वजनिक समारोह आयोजित करने की अनुमति नहीं दी गई। उन्होंने दावा किया कि प्रशासन में बैठी कुछ ताकतें जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रवादी  लोगों को हतोत्साहित करने की कोशिश कर रही हैं।  अभाविप के राज्य उप-प्रधान राघव शर्मा ने भी स्वीकार किया कि राज्य में राष्ट्रवादी ताकतों को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हालांकि उन्होंने कहा कि अभाविप अपने कार्यक्रम पूर्व की भांति चला रही है। संगठन का कार्य राष्ट्रवादी माकतों को मजबूती प्रदान करना है। 

प्यासी धरा

जूझ रही है ये धरती
सूरज के गर्म थपेड़ो से
तप रही है ये धरा
ज्वाला जैसी किरणों से
पेड़ों पर अब सावन के झूले नहीं लगते
झूल रहें है अब पेड़ों पर किसान
लगाकर फाँसी
अब गीत नहीं कोई राग नहीं
केवल अश्रु और क्रंदन है
प्यासी है ये धरती सारी
प्यासा हर इंसान है
ऐसे में ए बरखा रानी
शीतल जल कलश
तू ले आना
सुखी पड़ी इस जमीं पर
रिमझिम पावस बरसा जाना
टिप टिप टिप टिप
बूंदों की टाप से
धरती फिर से नाच उठेगी
सुखी जमीं पर फिर देखो
कोंपल कैसे मुस्कुरा उठेगी
पीकर जल मनभर
फिर पौध रूप धर जाएँगी
होगा खेत फिर हरा भरा
और चिडिय़ा चहचहाएंगी
धान उगेगा फसले बढेंगी
किसानो की जिंदगी बचेगी
सूखे की मार झेल रहे
लोगो के जीवन में
फिर से हरियाली महकेंगी
होगा फिर उत्सव जीवन में
फिर से जीवन नाच उठेगा
चारो ओर होगा जल और जीवन
झूम उठेगा सबका मन
-रीना मौर्य 'मुस्कान'
शिक्षिका, मुंबई (महाराष्ट्र)








आरक्षण का झुनझुना

छत्रपाल
-छत्रपाल
हे उच्चकुलीन जनों, आपसे हार्दिक सुहानुभूति है। आपके माता-पिता ने अपने वंश में पैदा करके आप के  प्रति जो अक्षम्य अपराध किया है उसका दंड आप आयुपर्यन्त भोगते रहेंगे। जिस उच्च कुल पर आप गौरवान्वित महसूस करते थे उसी पर अब लज्जित होकर आपको मुंह छिपाना पड़ेगा। उच्च कुलों के दीपक होने के कारण लोकतांत्रिक आंधियों में आप न तो सुरक्षित है, न ही आरक्षित। हे अभिशप्त कुलीनो, अपने पुरखों के मिथ्या दंभपूर्ण यशोगान की अपेक्षा करबद्ध होकर ईश्वर से प्रार्थना करो कि परमपिता अगले जन्म में आपको अनुसूचित जातियों का कुलदीपक बनाए ताकि आपका जीवन रक्षित और आरक्षित हो सके। कलियुग में उच्च वर्ग में पैदा होने की हानियों से आप अभी तक परिचित नहीं हुए। इस महादेश में परिवर्तन की उल्टी हवाएं चलने लगी हैं। कई वर्गां के लिए यह निश्चय ही सुवासित मंद-मंद समीर होगी। किन्तु आप पर उन्चास पवनों का कहर बनकर टूटेगी।
घायल भारत पुत्रों , देशधर्म को पहचानो और छद्म प्रमाण पत्रों की गुप्त व्यवस्था करो। अपने देश में बहुसंख्यकों के नहीं अल्पसंख्यकों के अधिकार आरक्षित हैं। अत: अधिकार प्राप्त करने के लिए अल्पसंख्यक, जनजाति या अनुसूचित वेश में विकास का अधिकार प्राप्त करने के लिए पिछड़ा होना आवश्यक है। पिछड़ेेपन का एकमात्र यही प्रमाण है कि आपके पिताश्री, दादाश्री, और परदादाश्री सभी पिछड़ेे हुए हों। जन्म से पिछड़ी, अनुसूचित अथवा जनजाति का होने पर ही आपको आरक्षण के योग्य माना जाएगा। अपनी गरीबी का रोना रोना बंद कीजिए गरीबी को पिछड़ेेपन का आधार नहीं बनाया जा सकता। बहुसंख्यक समाज के अभागे नागरिको, तुम लोकतंत्र में मात्र अपना मत देने के लिए पैदा हुए हो। तुम मतदाता हो। दाता होकर याचकों की तरह भागना तुम्हे शोभा नहीं देता। क्या हुआ जो महंगाई की लोमड़ी ने तुम्हारा चेहरा नोच लिया है और भ्रष्टाचार की जोंक ने तुम्हारा रक्त चूस लिया है। दाता होने का गौरव तुम्हे ही प्राप्त है। अपने नसीब में लिखा तुम्हें ही भोगना है। बहुमत के सिद्धांत पर खड़े लोकतंत्र में बहुसंख्यकों की ही दुर्दशा पर आंसू बहाने से तुम्हें आरक्षण सुख प्राप्त नहीं होगा। लोकतंत्र की शरशैया पर लेटे रहो और अगले जन्म में अनुसूचित के किसी आरक्षित कुल में जन्म लेने की प्रार्थना में लीन हो जाओ।
अनुसूचित फेहरिस्त में आने  के लिए आकुल पुरुषार्थियो, आरक्षण का गौरव प्राप्त करने के लिए अपने संघर्ष को तीव्र गति प्रदान करो। यदि और कोई कारण दृष्टिगत नहीं होता तो अपनी भाषा की दुम पकड़कर अनुसूचित जातिवर्ग में प्रवेश  कर जाओ। यह वैतरणी परम पद की प्राप्ति हेतु,  तुम्हे किसी भी तरह पार करनी ही होगी। भाषा को यदि अपने संघर्ष का शस्त्र बनाओगे तो अपने लालायित क्षेत्र की जातियों-उपजातियों के विरोध से बच जाओगे। ज्ञातव्य हो कि यदि अपने धर्मनिरपेक्ष, बहुआयामी और वैविध्यपूर्ण देश में भाषा के आधार पर राज्यों की स्थापना हो सकती है तो भाषा के सहारे अनुसूचित जाति ही नहीं अनुसूचित जनजाति की श्रेणी भी प्राप्त की जा सकती है। भाषा के आधार पर मिलने वाली अनुसूचित श्रेणी आरक्षण नीति की नई परिभाषा तय करेगी। पिछड़ी भाषा बोलने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भी अनुसूचित जनजाति के परम पद को प्राप्त होंगे। इस प्रकार समाज से समस्त विषमताएं दूर हो जाएंगी और समग्र समाज अनुसूचित होकर विकासोन्मुख हो जाएगा।
अपने बच्चों पर कुछ रहम खाओ और उन्हें ओपन मेरिट की कड़ी धूप से बचाने के लिए आरक्षण की छतरी प्राप्त करने का जुगाड़ करो। याद करने की कोशिश करो, संभवत तुम्हारे पूर्वजों में से कोई भूतपूर्व सैनिक रहा हो या उनका निवास स्थान नियंत्रण रेखा के इस पार या उस पार रहा हो। उन लोगों से प्रेरणा लो जो पिछड़े क्षेत्र के पिछड़ेपन से आजिज आकर बड़ेे-बड़ेे नगरों में दशकों से सुविधापूर्ण जीवन जी रहे हैं किन्तु अब भी अपने बच्चों को पिछड़े क्षेत्र का आरक्षण लाभ दिलवा रहे हैं।

व्यंग्य के नाम पर परोसी जा रही है फूहड़ता


शेख मोहम्मद कल्याण
आज के इस दौर में जहां रोजी-रोटी की समस्या मुंह बाए सामने खड़ी हो, घर के बाहर निकलते ही रोशनियों की चकाचौंध जब हमारी आँखों की रोशनी पर ही तीखा प्रहार करती हो, ऐसे में एक साहित्यकार से बात करके जो सुख मिलता है उसे बयां नहीं किया जा सकता। इस भयावह समय में भी लेखक की कलम चुप नहीं रह सकती।  जो समाज में हो रहा है, एक सजग लेखक की पैनी नजऱ उस पर बनी ही रहती है। आर्थिक, धार्मिक तथा सामाजिक विसंगतियों को दूर तो नहीं कर सकता एक लेखक लेकिन आम आदमी को चेताता ज़रूर है, इसी पर बात करने के लिए आज हमारे साथ हैं एक अध्यापक, व्यंग्य लेखक, रंगमंच से जुड़े डॉ.पवन खजूरिया।
प्र - पवन जी सबसे पहले यह बताइये की आप एक व्यंग्य लेखक होने के साथ-साथ रंगमंच से भी जुड़े हुए हैं, तो क्या सबसे पहले आप रंगमंच से जुड़े या साहित्य से।
उ - कल्याण जी लगभग सारी चीजें साथ-साथ होती गईं । 1985 की बात है मैं कॉलेज में पढ़ता था तो उस समय की कॉलेज की पत्रिका 'वैष्णवी' में मेरी पहली कविता 'आ गया पुन: बसंत' प्रकाशित हुई थी तब से आज तक अनेक कविताएं लिखी और प्रकाशित भी होती रहीं।
प्र-तो रंगमंच की शुरुआत कैसे हुई?
उ-कॉलेज में ही प्रोफेसर विश्वमूर्ति शास्त्री तथा केवल कृष्ण शास्त्री की देखरेख में 'युवजन' समारोह में पहले नाटक में एक्टिंग करने का मौका मिला, तत्पश्चात स्व. रतन कलसी के साथ नुक्कड़ नाटकों में काम किया, नुक्कड़ नाटक करते ही मुश्ताक़ कॉक के निर्देशन में 1989 में डोगरी नाटक 'सवा सेर कनक' से थिएटर की तरफ रुझान बढऩे लगा जो थिएटर तक मुझे ले गया।
प्र-कुछ खास नाटक जिनमे आपकी भूमिका बहुत सराही गई हो?
उ -जी हाँ दीपक कुमार के निर्देशन में नाटक 'मोटेराम का सत्याग्रह' में एक अंग्रेज़ की भूमिका आज भी लोग बहुत याद करते हैं, इसी तरह डोगरी नाटक 'मनुक्ख', 'होली', 'कहानी हमारी तुम्हारी' तथा 'देवी' उल्लेखनीय हैं।
प्र-आपने जम्मू के किन-किन निर्देशकों के साथ काम किया है।
उ-लगभग सभी के साथ, जनक खजूरिया , दीपक कुमार, बलवंत ठाकुर, मोहन सिंह, स्व.कवि रत्न, स्व.रतन कलसी, भूपिंदर सिंह जम्वाल इत्यादि।
प्र-कुछ नाटकों का लेखन भी आपने किया?
उ-जी नशे पर आधारित नाटक 'जि़म्मेवार कौन', धार्मिक नाटक 'बाबा अंबो' तथा 'चेतो रे कृष्ण' के लेखन के साथ ही एकाँकी नाटक भी लिखे, नशे पर आधारित 'जि़म्मेवार कौन' नाटक तो 'मशवरा' नामक संस्था ने लिखवाया था जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में देविंदर नन्दा के निर्देशन में दस शो हुए थे।
प्र-आपने कहा कि रंगमंच और लेखन साथ-साथ चलते रहे लेकिन आपने लेखन में केवल व्यंग्य की विधा को ही चुना, उसकी कोई खास वजह?
उ-नहीं कोई खास वजह तो नहीं कह सकते,हाँ इतना ज़रूर है की मुझे जो बात कहनी होती,उसे व्यंग्य के माध्यम से कहने में मुझे कोई दिक्कत नहीं आती थी, या यूं कहें की व्यंग्य शैली जो आज लुप्त हो रही है, मुझे ऐसा भी लगा की इस शैली को कम से कम मैं ही सहेजने की कोशिश करूँ।
प्र-आप किस व्यंग्यकार से प्रभावित हैं। और किन-किन व्यंग्यकारों को आपने आज तक पढ़ा है?
उ-मैं ज्यादा तो नहीं कह सकता, लेकिन हरी शंकर परसाई, रविंदर त्यागी ने बहुत प्रभावित किया, बाकी आजकल जो लिखा जा रहा है, उसमे तो व्यंग्य के नाम पर फूहड़ता ही परोसी जा रही है।
प्र-पवन जी यह बताइये की आज के दौर में साहित्य की सभी विधाओं पर बहुत साहित्य लिखा जा रहा है, लेकिन व्यंग्य बहुत ही कम मात्रा में हमारे सामने आ रहा है, क्या वजह मानते हैं आप?
उ-जहां तक मेरा मानना है की व्यंग्य विधा को बढ़ावा देने के लिए सरकारी अवहेलना तो हुई ही है, पर साहित्यिक संस्थाओं ने भी अपनी भूमिका ईमानदारी से नहीं निभाई।
प्र-पर पवन जी आप भी हिन्दी की एक प्रतिनिधि संस्था से कई सालों से जुड़े हुए हैं, और फिर आप स्वयं भी व्यंग्य लेखक हैं, तो आपने क्या भूमिका निभाई इस व्यंग्य लेखन के बढ़ावे के लिए?
उ-मैं खुद को भी कसूरवार मानता हूँ, कि एक प्रतिनिधि संस्था के साथ होते हुए भी हम इस विधा के लिए कुछ नहीं कर सके।
प्र-तो क्या यह मान लिया जाए की आने वाले कई सालों में व्यंग्य नाम की कोई विधा साहित्य में होगी ही नहीं?
इस बात का कोई भी उत्तर पवन तो क्या हम सब के पास भी नहीं है, क्योंकि आज हमारे पास दर्जनों टीवी चैनल मौजूद हैं, जिनमे साहित्य और व्यंग्य के नाम पर सिर्फ और सिर्फ फूहड़ता परोसी जा रही है, ऐसे में जो व्यंग्य लेखक हैं, उनके लिए यह दौर बहुत मुश्किल दौर है। हम सब को इस बारे में मिलजुल कर सोचना होगा की लुप्त होती इस साहित्यिक विधा को कैसे बचाया जा सकता है।

आश्वासनों की बौछारों पर भारी पड़ रही समस्याओं की गर्मी

दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू। सरकार और प्रशासन, अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जम्मू संभाग के व्यापार जगत के साथ लगातार उपेक्षित व्यवहार कर रहा है। जम्मू शहर के प्रमुख व्यापारिक केन्द्रों में फैले समस्याओं के मकडज़ाल से व्यापारी परेशान है। व्यापारिक समस्याओं से भली-भांति अवगत होने के बावजूद सरकार और संबंधित अधिकारी मूकदर्शकों की भूमिका अदा कर रहे हैं। जम्मू संभाग में व्यापारिक गतिविधियां के प्रमुख केन्द्र वेयर हाऊस के व्यापारियों की समस्याओं के समाधान के प्रति भी प्रशासन उपेक्षित रवैया अपनाता रहा है।
गौरतलब है कि 'दीपाक्षर टाइम्स' ने वेयर हाऊस के व्यापारियों की समस्याओं को लेकर 58 वर्षों से मालिकाना हक के इंतजार में वेयर हाऊस के व्यापारी' शीर्षक से  9 मार्च 2016 के अंक में समाचार प्रकाशित किया था।  संबंधित अधिकारियों द्वारा सिर्फ आश्वासन  देने के बावजूद यहां 10-15 वर्षों से सड़कों की मरम्मत नहीं की गई है। पेयजल समस्या से निपटने के लिए बार-बार गुहार लगाने के बाद ट्रैडर्स फेडरेशन वेयर हाऊस/नेहरू मार्केट, जम्मू  ने पैसे खर्च कर टयूबवैल लगवाए हैं। वेयर हाऊस में सफाई बनाए रखने के लिए जम्मू नगर निगम को प्रति माह 20,000 रूपए देने के बावजूद यहां चारो ओर गंदगी पसरी रहती है। पुलिस चौकी के पास बेकार गाडिय़ोंं को बार-बार कहने के बाद भी हटाया नहीं जा रहा है। समस्याओं का समाधान करने के स्थान पर सिर्फ आश्वासन दे दिए जाते हैं। वेयर हाऊस में प्रशासन की ओर सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई है। जिसके कारण व्यापारियों को हमेशा किसी अनहोनी की चिंता सताती है। एसोसिएशन की ओर से सामान की निगरानी के लिए 34 कर्मचारी नियुक्त किए हैं, जिन पर प्रति माह 1.75 लाख रूपए खर्च किए जाते हैं।
दो माह पूर्व वेयर हाऊस के व्यापारियों की समस्याओं के संबंध में जेडीए के वाइस चेयरमैन मुबारक सिंह ने 'दीपाक्षर टाइम्स' से  कहा था कि वेयर हाऊस में प्रिमिक्सिंग का काम जल्द ही शुरू कर दिया जाएगा। हालांकि उनका यह बयान अभी तक बयान ही साबित हुआ है। शहर की अधिकांश सड़कों की मरम्मत हो चुकी है,लेकिन प्रशासन की नजर अभी तक वेयर हाऊस की सड़कों की ओर नहीं गई है। वेयर हाऊस की खस्ता हाल सफाई व्यवस्था के संबंध में जम्मू नगर निगम के हैल्थ ऑफिसर सलीम खान ने वायदा किया था कि सफाई व्यवस्था जल्द ही ठीक कर दी जाएगी। लेकिन अभी तक इस संबंध में भी कोई कदम नहीं उठाया गया है। जहां तक वेयर हाऊस के व्यापारियों को मालिकाना हक देने या उन्हें अपनी दुकानों पर दूसरी मंजिल का निर्माण करने की अनुमति देने की बात है तोइस संबंध में भी आश्वासनों का दौर अभी तक जारी है। गत दिनों एक कार्यक्रम में उपमुख्यमंत्री डॉ.निर्मल सिंह के समक्ष भी यह मामला उठाया गया था। उन्होंने कहा था कि जल्द ही इस संबंध में जल्द ही कदम उठाए जाएंगे। हाल ही में वेयर हाऊस के व्यापारिक प्रतिनिधिमंडल ने भी इसको लेकर उपमुख्यमंत्री से भेंट की थी। ट्रैडर्स फेडरेशन वेयर हाऊस/नेहरू मार्केट, जम्मू के महासचिव दीपक गुप्ता ने 'दीपाक्षर टाइम्स' को बताया कि व्यापारियों को दूसरी मंजिल के निर्माण की अनुमति देने के बारे में अभी तक सिर्फ बातें ही की जा रही है, कोई ठोस कदम उठाने से लगातार परहेज किया जा रहा है।