नई दिल्ली।
आज दुनिया के ग्लेश्यिरों पर संकट मंडरा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है ग्लोबल वार्मिंग, जिसके चलते बढ़ रहे तापमान का बुरा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। परिणामस्वरूप वे पिघल रहे हैं। उनके पिघलने की यदि यही रफ्तार जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब 21वीं सदी के आखिर तक एशिया और 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। उनका नाम केवल किताबों में ही शेष रह जाएगा। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही असर है कि आर्कटिक में लाल बर्फ तेजी से बन रही है और उसके परिणामस्वरूप वहां ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार और तेज हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हमारे उच्च हिमालयी इलाके में जहां पर एक समय केवल बर्फ गिरा करती थी वहां अब बारिश हो रही है। यह स्थिति भयावह खतरे का संकेत है। देखा जाए तो 1850 के आसपास औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में धरती एक डिग्री गर्म हुई है। वैज्ञानिकों की मानें तो उनको इस बात का भय सता रहा है कि उनके द्वारा निर्धारित तापमान में बढ़ोतरी की दो डिग्री की सीमा को 2100 तक बचा पाना संभव नहीं दिख रहा है। उनका मानना है कि यदि ऐसा होता है तो एशिया में ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
नीदरलैंड और हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियरों के पिघलने का सबसे बड़ा और अहम कारण ग्लोबल वार्मिंग है। उनके शोध के अनुसार ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने से समुद्री जलस्तर में एक से 1.2 फीट तक की वृद्धि हो सकती है। इसका असर मुंबई, न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस जैसे शहरों पर पड़ेगा। यही नहीं कृत्रिम झीलों के बनने से 2013 में उत्तराखंड में आई केदारनाथ जैसी त्रासदी के खतरे भी बढ़ेंगे। जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि आर्कटिक में बन रही लाल बर्फ से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार 20 फीसद बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार उसमें पाए जाने वाले जीवाणु वहां की बर्फीली सतह का रंग बदल कर लाल कर दे रहे हैं। परिणामस्वरूप सूर्य की रोशनी को परावर्तित करने की उनकी क्षमता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। इससे लाल बर्फ में सूर्य की रोशनी और उष्मा ज्यादा अवशोषित हो रही है। इससे बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेज हो गई है। यहां ग्लेशियरों के पिघलने का नतीजा यह होगा कि आर्कटिक की कार्बन सोखने की क्षमता प्रभावित होगी। वह दिनोंदिन कम होती चली जाएगी। यदि यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता आर्कटिक पूरी तरह खो देगा। यह कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में रहकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने के कारक के रूप में काम करेगी। इसका दुष्प्रभाव यह होगा कि समूचा वैश्विक कार्बन चक्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। यह समूची दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है तो इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि माउंट एवरेस्ट तक ग्लोबल वार्मिग के चलते पिछले पचास सालों से लगातार गर्म हो रहा है। जिससे दुनिया की 8848 मीटर ऊंची चोटी के आसपास के हिमखंड दिन-ब-दिन पिघलते जा रहे हैं। इसरो की मानें तो हिमालय पर्वत श्रृंखला में कुल 9600 ग्लेशियर हैं। इनमें से 75 फीसद के पिघलने की गति जारी है। इनमें से ज्यादातर तो झील और झरने के रूप में तब्दील हो चुके हैं। चिंता की बात यह है कि यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो आने वाले समय में हिमालय की यह पर्वत श्रृंखला पूरी तरह बर्फ विहीन हो जाएगी।
इसमें दो राय नहीं कि यह सब तापमान में बढ़ोतरी के चलते मौसम में आए बदलाव का ही दुष्परिणाम है, जिसके कारण ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते चले जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि कर चुकी है। हालात की गंभीरता का पता इससे चल जाता है कि समूची दुनिया में वह चाहे आर्कटिक हो, आइसलैंड हो, हिमालय हो, तिब्बत हो, चीन हो, भूटान हो या नेपाल हो या फिर कहीं और, हरेक जगह ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है।
असल में ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिस तेजी से मौसम का मिजाज बदल रहा है, उसी तेजी से हिम रेखा भी पीछे की ओर खिसकती जा रही है। इससे जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। हिम रेखा के पीछे खिसकने से टिंबर लाइन यानी जहां तक पेड़ होते थे और हिम रेखा यानी जहां तक स्थाई तौर पर बर्फ जमी रहती थी, के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। हिम रेखा पीछे खिसकने से खाली हुई जमीन पर वनस्पतियां उगती जा रही हैं। ये वनस्पतियां, पेड़ और झाडिय़ां जिस तेजी से ऊपर की ओर बढ़ती जाएंगीं, उतनी ही तेजी से ग्लेशियरों के लिए खतरा बढ़ता चला जाएगा। नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने अनुमान व्यक्त किया है कि आने वाले 33 सालों यानी 2050 तक ऐसे समूचे हिमनद पिघल जाएंगे। इससे इस इलाके में बाढ़ और फिर अकाल का खतरा बढ़ जाएगा। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों पर कुल मानवता का लगभग पांचवां हिस्सा निर्भर है। पानी का संकट और गहराएगा। कृत्रिम झीलें बनेंगी। तापमान तेजी से बढ़ेगा। बिजली परियोजनाओं पर संकट मंडराएगा और खेती पर खतरा बढ़ जाएगा।
इस बारे में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान का मानना है कि यह ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है कि हिमालयी क्षेत्र में जहां पहले बारह महीने बर्फ गिरती थी, अब वहां बर्फ गिरने के महीनों में कमी आई है। वहां बारिश भी होने लगी है। तात्पर्य यह कि अब इस क्षेत्र में बारिश होने वाला इलाका 4000 से 4500 मीटर तक बढ़ गया है। इससे हिमालय में एक नया बारिश वाला इलाका विकसित हुआ है।
तापमान में बढ़ोतरी से उपजी गर्म हवाएं जैवविविधता के लिए गंभीर खतरा बन रही हैं। ये जैव विविधता के विनाश का कारण हैं। जाहिर है अब कुछ किए बिना इस समस्या से छुटकारा संभव नहीं है। इसलिए तापमान में वृद्धि को रोकना समय की सबसे बड़ी मांग है। वैश्विक स्तर पर इस पर लगाम लगाने के प्रयास तो किए जा रहे हैं, लेकिन हमें भी कुछ करना होगा। जीवनशैली में बदलाव और भौतिक सुख-संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग पर अंकुश इसका बेहतर समाधान हो सकता है।
आज दुनिया के ग्लेश्यिरों पर संकट मंडरा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है ग्लोबल वार्मिंग, जिसके चलते बढ़ रहे तापमान का बुरा असर ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। परिणामस्वरूप वे पिघल रहे हैं। उनके पिघलने की यदि यही रफ्तार जारी रही तो वह दिन दूर नहीं जब 21वीं सदी के आखिर तक एशिया और 2035 तक हिमालय के ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। उनका नाम केवल किताबों में ही शेष रह जाएगा। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही असर है कि आर्कटिक में लाल बर्फ तेजी से बन रही है और उसके परिणामस्वरूप वहां ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार और तेज हो गई है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते हमारे उच्च हिमालयी इलाके में जहां पर एक समय केवल बर्फ गिरा करती थी वहां अब बारिश हो रही है। यह स्थिति भयावह खतरे का संकेत है। देखा जाए तो 1850 के आसपास औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में धरती एक डिग्री गर्म हुई है। वैज्ञानिकों की मानें तो उनको इस बात का भय सता रहा है कि उनके द्वारा निर्धारित तापमान में बढ़ोतरी की दो डिग्री की सीमा को 2100 तक बचा पाना संभव नहीं दिख रहा है। उनका मानना है कि यदि ऐसा होता है तो एशिया में ग्लेशियरों का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
नीदरलैंड और हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियरों के पिघलने का सबसे बड़ा और अहम कारण ग्लोबल वार्मिंग है। उनके शोध के अनुसार ग्लेशियरों की बर्फ पिघलने से समुद्री जलस्तर में एक से 1.2 फीट तक की वृद्धि हो सकती है। इसका असर मुंबई, न्यूयॉर्क, लंदन और पेरिस जैसे शहरों पर पड़ेगा। यही नहीं कृत्रिम झीलों के बनने से 2013 में उत्तराखंड में आई केदारनाथ जैसी त्रासदी के खतरे भी बढ़ेंगे। जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित एक शोध में इस बात का खुलासा हुआ है कि आर्कटिक में बन रही लाल बर्फ से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार 20 फीसद बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों के अनुसार उसमें पाए जाने वाले जीवाणु वहां की बर्फीली सतह का रंग बदल कर लाल कर दे रहे हैं। परिणामस्वरूप सूर्य की रोशनी को परावर्तित करने की उनकी क्षमता दिन-ब-दिन कम होती जा रही है। इससे लाल बर्फ में सूर्य की रोशनी और उष्मा ज्यादा अवशोषित हो रही है। इससे बर्फ के पिघलने की रफ्तार तेज हो गई है। यहां ग्लेशियरों के पिघलने का नतीजा यह होगा कि आर्कटिक की कार्बन सोखने की क्षमता प्रभावित होगी। वह दिनोंदिन कम होती चली जाएगी। यदि यही हाल रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करने की क्षमता आर्कटिक पूरी तरह खो देगा। यह कार्बन डाईऑक्साइड वातावरण में रहकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने के कारक के रूप में काम करेगी। इसका दुष्प्रभाव यह होगा कि समूचा वैश्विक कार्बन चक्र प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा। यह समूची दुनिया के लिए खतरे की घंटी है। जहां तक हिमालयी क्षेत्र का सवाल है तो इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता कि माउंट एवरेस्ट तक ग्लोबल वार्मिग के चलते पिछले पचास सालों से लगातार गर्म हो रहा है। जिससे दुनिया की 8848 मीटर ऊंची चोटी के आसपास के हिमखंड दिन-ब-दिन पिघलते जा रहे हैं। इसरो की मानें तो हिमालय पर्वत श्रृंखला में कुल 9600 ग्लेशियर हैं। इनमें से 75 फीसद के पिघलने की गति जारी है। इनमें से ज्यादातर तो झील और झरने के रूप में तब्दील हो चुके हैं। चिंता की बात यह है कि यदि इस पर अंकुश नहीं लगा तो आने वाले समय में हिमालय की यह पर्वत श्रृंखला पूरी तरह बर्फ विहीन हो जाएगी।
इसमें दो राय नहीं कि यह सब तापमान में बढ़ोतरी के चलते मौसम में आए बदलाव का ही दुष्परिणाम है, जिसके कारण ग्लेशियर लगातार सिकुड़ते चले जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र की पर्यावरण रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि कर चुकी है। हालात की गंभीरता का पता इससे चल जाता है कि समूची दुनिया में वह चाहे आर्कटिक हो, आइसलैंड हो, हिमालय हो, तिब्बत हो, चीन हो, भूटान हो या नेपाल हो या फिर कहीं और, हरेक जगह ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार तेजी से बढ़ रही है।
असल में ग्लोबल वार्मिंग के कारण जिस तेजी से मौसम का मिजाज बदल रहा है, उसी तेजी से हिम रेखा भी पीछे की ओर खिसकती जा रही है। इससे जैवविविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। हिम रेखा के पीछे खिसकने से टिंबर लाइन यानी जहां तक पेड़ होते थे और हिम रेखा यानी जहां तक स्थाई तौर पर बर्फ जमी रहती थी, के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। हिम रेखा पीछे खिसकने से खाली हुई जमीन पर वनस्पतियां उगती जा रही हैं। ये वनस्पतियां, पेड़ और झाडिय़ां जिस तेजी से ऊपर की ओर बढ़ती जाएंगीं, उतनी ही तेजी से ग्लेशियरों के लिए खतरा बढ़ता चला जाएगा। नेपाल स्थित इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट ने अनुमान व्यक्त किया है कि आने वाले 33 सालों यानी 2050 तक ऐसे समूचे हिमनद पिघल जाएंगे। इससे इस इलाके में बाढ़ और फिर अकाल का खतरा बढ़ जाएगा। गौरतलब है कि हिमालय से निकलने वाली नदियों पर कुल मानवता का लगभग पांचवां हिस्सा निर्भर है। पानी का संकट और गहराएगा। कृत्रिम झीलें बनेंगी। तापमान तेजी से बढ़ेगा। बिजली परियोजनाओं पर संकट मंडराएगा और खेती पर खतरा बढ़ जाएगा।
इस बारे में वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान का मानना है कि यह ग्लोबल वार्मिंग का ही नतीजा है कि हिमालयी क्षेत्र में जहां पहले बारह महीने बर्फ गिरती थी, अब वहां बर्फ गिरने के महीनों में कमी आई है। वहां बारिश भी होने लगी है। तात्पर्य यह कि अब इस क्षेत्र में बारिश होने वाला इलाका 4000 से 4500 मीटर तक बढ़ गया है। इससे हिमालय में एक नया बारिश वाला इलाका विकसित हुआ है।
तापमान में बढ़ोतरी से उपजी गर्म हवाएं जैवविविधता के लिए गंभीर खतरा बन रही हैं। ये जैव विविधता के विनाश का कारण हैं। जाहिर है अब कुछ किए बिना इस समस्या से छुटकारा संभव नहीं है। इसलिए तापमान में वृद्धि को रोकना समय की सबसे बड़ी मांग है। वैश्विक स्तर पर इस पर लगाम लगाने के प्रयास तो किए जा रहे हैं, लेकिन हमें भी कुछ करना होगा। जीवनशैली में बदलाव और भौतिक सुख-संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग पर अंकुश इसका बेहतर समाधान हो सकता है।
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