बजुर्गों दा बेह्डा में स्वच्छंद विचरण करते पक्षियों को देखकर श्री हंसराज जी भाव विभोर हो उठे। |
जम्मू। आधुनिकता की होड़ और ज्यादा कमाने के लालच के चक्कर में पड़कर आजकल रिश्तों की डोर कमजोर होती जा रही है। हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि जिन बुजुर्गों की उंगली पकड़कर हमने चलना सीखा, आज उनकी अनदेखी की जा रही है और बुजुर्ग अपनों के द्वारा ही अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। लेकिन ऐसे समय में भी कुछ ऐसे कर्मठ युवा हैं, जो अपने संस्कारों से दूर नहीं जा सकते और अपनों के द्वारा परेशान बुजुर्गों के प्रति गहन सहानुभूति रखते हैं। ऐसे ही संस्कारवान हैं श्री दीपक अग्रवाल, जिन्होंने बुजुर्गों की सेवा को अपना ध्येय मानते हुए एक सामाजिक संगठन का तानाबाना बुना, जो आज 'पहलÓ के रूप में समाज के सामने खड़ा है। विजयपुर के सलमेरी गांव में बन रहा बजुर्गों दा बेह्ड़ा भी ऐसे ही बुजुर्गों को समर्पित है, जो अपनों की ही अनदेखी का शिकार हो रहे हैं। 'पहलÓ संस्था द्वारा बनाए जा रहे इस बेहड़े में निर्माण कार्य तीव्र गति से जारी है। इस बेह्ड़े को देखने अब तो दूर-दूर से लोग आने लगे हैं जिनमें न सिर्फ बुजुर्ग, बल्कि महिलाओं और बच्चों की भी संख्या बढ़ रही है। इस बेह्डे में कई प्रकार के स्वास्थ्यवर्धक पौधों को लगाया जा रहा है। विभिन्न प्रकार के पक्षी यहां स्वच्छंद घूम रहे हैं। यहां का प्राकृतिक माहौल पर्यावरण के लिहाज से अतिउत्तम और शांतमय है। हर रोज यहां बुजर्ग आते हैं और स्वच्छंद विचरण करते पक्षियों, बत्तखों और खरगोशों को देखकर अपने मन की शांति प्राप्त करते हैं।
यहां बुजुर्गांे के स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए श्री दीपक अग्रवाल जी ने एक डिस्पेंसरी भी स्थापित की है जहां बुजुर्गों के स्वास्थ्य की निशुल्क जांच की व्यवस्था की जा रही है तथा जरूरी होने पर दवाइयां भी उपलब्ध कराई जाएंगी।
बजुर्गों दा बेह्डा में घूमने आए श्री हंस राज गांव संगवाल में रहते हैं तथा इन्हें 'डुग्गर दे कविÓ उप नाम से भी जाना जाता है। यह सम्मान उन्हें एक संस्था द्वारा प्रदान किया गया है। अपने बारे में श्री हंसराज जी ने बताया कि 'मेरा जन्म 25 जुलाई 1932 को हुआ। उस समय स्कूल भी कम हुआ करते थे और गरीबी का आलम होने के कारण वे पढऩे स्कूल नहीं जा सके। मात्र दस वर्ष की आयु में ही वे कमाने के लिए लाहौर चले गए और वहां पापड़ बाजार में सतपाल शोरीलाल की दुकान में काम किया। इस कारण शिक्षा से वंचित रह गया।Ó
उसी दौरान भारत-पाकिस्तान का बंटवारा होने के कारण अराजकता का माहौल उत्पन्न हो गया जिस कारण नौकरी छोड़कर आना पड़ा। बचपन से ही उन्हें शेर-ओ-शायरी का शौक था जो समय के साथ परवान चढ़ता चला गया। अल्फाज धाराप्रवाह कविता बनकर जुबां पे आ जाते जिन्हें पेश कर वे महफिल में वाहवाही लूटते रहे। बंटवारे के समय जब उनके मुसलमान मित्र भारत छोड़कर जा रहे थे वे खुद उन्हें छोडऩे अंतर्राष्ट्रीय सीमा तक गए और भारी मन से उन्हें विदा किया। श्री हंसराज आज भी उन मुसलमान मित्रों की याद करके जज्बाती हो जाते हैं। शादी हो जाने के बाद भी उनका कविता पाठी का सिलसिला जारी रहा।
सन् 1947 में जब भारत आजाद हुआ जो जम्मू-कश्मीर में बड़ी अराजकता की स्थिति थी। पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में आते और लूटपाट मचाते तथा गांवों को आग लगाकर भाग जाते। उस समय डुग्गर के कई जांबाज वीरों ने जम्मू-कश्मीर की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। इसका असर मेरी कविताओं पर पड़ा और मैंने वीर सपूतों के राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कविताओं की रचना प्रारंभ कर दी।
जब श्री हंसराज जी से उस समय की किसी कविता को सुनाने का आग्रह किया तो उन्होंने 'बचाई ही जम्मू कश्मीर किआं' शीर्षक की कविता सुनाई
उस वक्त आम लोगों की आर्थिक दशा कैसी थी, इसका जवाब भी श्री हंसराज ने शायराना अंदाज में दिया-
'तन पर नेई कपड़ा शाही कंगाली
साह्डी गरीबे दी दुनियां नराली
ऐ मैहल मनारे आसे सुआरे
रातां न कटटे ने शिडके कनारे
मीरें दी दुनियॉ मना दी दवाली
साह्डी गरीबे दी दुनियॉं नराली।'
जब श्री हंसराज से पूछा गया कि बजुर्गों दे बेह्डे में आकर वे कैसा महसूस कर रहे हैं तो उनका कहना था कि 'देखकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि आज भी इस समाज में ऐसे लोग हैं जो बिना स्वार्थ के समाजसेवा कर रहे हैं। श्री दीपक अग्रवाल के नेतृत्व में 'पहल' संस्था जो नेक काम कर रही है, वह बहुत आगे बढ़ेगी, यह मेरा आशीर्वाद है।'
'पहल' संस्था के चेयरमैन श्री दीपक अग्रवाल के बारे में श्री हंसराज का कहना था-
'तू होना कामयाब तेरी जमीर दस्से दी
तेरी हथ्थे दी रेखा ते मथ्थे दी लकर दस्से दी।
कामयाबी उन्हें लोके गी थोहदी जेहडे संघर्ष कर दे।
उनका कहना था कि सफल वही लोग होते हैं, जो जीवन में संघर्ष करते हैं। दीपक अग्रवाल अवश्य सफल होंगे क्योंकि उनके द्वारा निस्वार्थ भाव से किए जा रहे काम ही उनको सफलता की दहलीज तक लेकर जाएंगे।
यहां उल्लेखनीय यह है कि पूरी तरह से अनपढ़ होने के बावजूद उम्रदराज श्री हंसराज जी की याददाश्त गजब की है और उनकी कविताओं में कहीं नहीं झलकता कि वे पढ़ाई से दूर रहे।
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