मौलवी या इनसाफ? विवाह मुसीबत तब बनता है, जब पति-पत्नी की आपस में पटती नहीं। लेकिन एक बार शादी हो जाने के बाद मामला केवल पति-पत्नी की आपस में पटती है या नहीं इसी के बीच नहीं सिमटा होता। परिवार में बच्चे भी होते हैं। उनके प्रति भी दोनों का उत्तरदायित्व होता है। अत: समाज को आशा होती है कि पति-पत्नी को अपने बच्चों की खातिर आपस में निर्वाह करते रहने की कला सीख लेनी चाहिए। इसके अतिरिक्त भारतीय समाज और पश्चिमी समाज में एक मौलिक अंतर और भी है। पश्चिमी समाज में तलाकशुदा औरत को समाज में हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। वहां तलाक सामान्य है और लंबी देर तक निभाना अपवाद है, लेकिन भारतीय समाज में स्थिति इसके विपरीत है। यहां व्यक्ति की अपेक्षा परिवार को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है। इसलिए तलाक अपवाद है और अंत तक निभाते रहना सामान्य है। भारत में तलाकशुदा औरत की दूसरी शादी भी इतना आसान नहीं है। तलाक के कारण पुरुष पर कोई दाग वहीं आता।
समाज में उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं होती, लेकिन तलाक से स्त्री सदा ही प्रश्नों के घेरे में आ जाती है। ऐसे प्रश्न जिनके लिए वह किसी भी तरह उत्तरदायी नहीं होती। फिर भी यदि ऐसी स्थिति आ जाए, जिसके चलते किसी पुरुष को लगता हो कि अब तलाक के बिना कोई विकल्प बचा नहीं है, तब भी उसके लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया है। बहुधा इसी प्रक्रिया के बीच पति-पत्नी में पुन: समझौता हो जाता है और परिवार टूटने से बच जाता है। यहां तक कि यदि पति और पत्नी दोनों परस्पर सहमति से भी तलाक लेना चाहते हैं, तब भी न्यायालय उन्हें छह मास का समय देता है, इस आशा के साथ कि शायद इसी बीच दोनों के गिले-शिकवे दूर हो जाएं और परिवार टूटने से बच जाएं। इस पूरी व्याख्या के बाद, यह बिना संशय के कहा जा सकता है कि तलाक जिस कारण से भी हो, उसके बाद शेष जीवन का नरक औरत और उसके बच्चों को ही भोगना पड़ता है।
इसके विपरीत आधुनिक युग में भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो विवाह को मौज-मस्ती मानते हैं और जब इच्छा हो, तो पत्नी को छोड़ कर पल्ला झाड़ लेते हैं। पल्ला झाडऩे का उनका तरीका बहुत ही आसान है। अपनी पत्नी को तीन बार कहा, तलाक, तलाक, तलाक और उस बेचारी का काम हो गया तमाम। जब तक वह बेचारी समझ पाए, तब तक उसका आशियाना उजड़ चुका होता है। जिस घर को उसने अपना घर समझ लिया था, वह एकतरफा तलाक, तलाक, तलाक के तीन शब्दों से, उसके लिए बंद हो जाता है। बेचारी औरत अपने बच्चों की अंगुली थामे आंगन में खड़ी होती है और दरवाजे के अंदर उसका शौहर ठहाके लगा रहा होता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने ठीक ही कहा है-तीन बार तलाक का उच्चारण एक प्रकार से इक्कीसवीं शताब्दी में भी द्रौपदी के चीर हरण के समान है, लेकिन ये जो बंद दरवाजों के पीछे तलाक, तलाक, तलाक चिल्लाने के बाद अट्टहास कर रहे हैं, उनका कहना है कि उनका मजहब उन्हें अपनी पत्नी को केवल तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण कर देने मात्र से पत्नी को छोड़ देने का अधिकार देता है। कोई भी मजहब इस प्रकार के अन्याय और अमानवीय कृत्य को जायज कैसे ठहरा सकता है। लेकिन इसका उत्तर देने की जरूरत उन मर्दों या शौहरों को नहीं है, जिन्होंने तलाक चिल्लाने में महारत हासिल कर ली होती है। उनकी ओर से उत्तर देने के लिए मुल्ला-मौलवी हाजिर हैं। वे पन्ने पलटते हुए खुलासा करते हैं कि हमारा मजहब तीन बार तलाक चिल्ला देने मात्र से विवाह को समाप्त कर देता है। काला बुर्का पहन कर सड़क पर तलाकशुदा औरतें हैरान हैं कि कोई भी मजहब भला ऐसा कैसे कर सकता है? लेकिन मौलवी गुस्से में अपनी मु_ियां भींचते हुए न जाने किस भाषा में अपने इस मजहब की रक्षा के लिए कमर कसे हुए हैं। सड़क पर खड़ी औरतों को इन मौलवियों की भाषा समझ नहीं आती और मौलवियों को इन बेसहारा औरतों के अंदर से निकल रही चीखें सुनाई नहीं देतीं। एक बात इन औरतों को समझ नहीं आ रही कि जब सारे देश में तलाक के लिए एक कानून है, तो इन्हीं अभागी औरतों को उस कानून से वंचित क्यों रखा जा रहा है? मुल्ला-मौलवियों का किसी अनजान भाषा में वही उत्तर है।
उनका मजहब इसकी इजाजत नहीं देता। किसी औरत ने मौलवी से आखिर पूछ ही लिया। आपका मजहब सिर माथे पर, लेकिन यदि हमारा शौहर तीन बार तलाक चिल्ला देने से पत्नी को छोड़ सकता है, तो क्या औरत भी तीन बार तलाक कह कर अपने शौहर को छोड़ सकती है। मौलवियों की भौहें तन जाती हैं। लाहौल बिलाकुबत! ऐसा कैसे हो सकता है? हमारा मजहब यह हक केवल मर्दों को देता है। केवल मर्दों को। काला बुर्का पहने इन औरतों को मौलवियों के मजहब ने चारों ओर से घेरा हुआ है। वे भाग नहीं सकतीं, लेकिन अब इनके और इनके बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? देश की अन्य औरतों को यह अधिकार प्राप्त है कि तलाक के बाद भी उनका पूर्व पति उसके और उसके बच्चों को भरण-पोषण के लिए धनराशि दे, लेकिन काला बुर्का पहने ये औरतें अपने लिए पूर्व पतियों से नियमित निर्वाह भत्ता भी नहीं मांग सकतीं। मौलवियों के अनुसार उसकी इजाजत भी उनका मजहब नहीं देता। जब पति ने मेहर की राशि वापस कर दी है, तो अब निर्वाह भत्ता क्यों दिया जाए? मौलवियों के पास काले बुर्के में लिपटी इन तमाम औरतों के तमाम सवालों का जवाब है, लेकिन यह समझ नहीं आता कि हर जवाब औरत के ही खिलाफ क्यों है? यही जानने के लिए इनमें से एक औरत चलते-चलते अंत में देश के उच्चतम न्यायालय के दरवाजे तक पहुंच गई। उसने फरियाद लगाई थी कि आप मर्दों की तीन बार तलाक चिल्ला देने की परंपरा को तो नहीं रोक सकते, क्योंकि ये मौलवी आपको ऐसा करने नहीं देंगे, लेकिन कम से कम आप मेरे पूर्व शौहर से गुजारा भत्ता तो दिलवा सकते हैं। इतना इनसाफ मांगने की हकदार तो हम भी हैं। उच्चतम न्यायालय के दरवाजे पर खड़ी यह औरत शाहबानो थी। मौलवी तब भी चिल्ला रहे थे। उनके लिहाज से इससे बड़ा कुफर नहीं हो सकता। मौलवियों का मजहब इनसाफ की ऐसी चोट बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। लेकिन न्यायपालिका की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उसने शाहबानों को इनसाफ दे दिया। शाहबानो जीत गई। न्यायालय ने कहा, देश के कानून के अनुसार शाहबानों गुजारा भत्ते की हकदार है। पहली बार मौलवी हार गए थे और इनसाफ की मांग कर रहीं बुर्के में लिपटी औरतें जीत गई थीं। लेकिन मौलवी हार कर भी हारे नहीं थे और बुर्के में लिपटी औरतें जीत कर भी जीती नहीं थीं। अब की बार देश की सरकार मौलवियों के हक में खड़ी हो गई थी। वह शाहबानाओं के खिलाफ डट गई थी। देश की संसद ने उच्चतम न्यायालय में इनसाफ हासिल कर चुकी शाहबानों को पराजित कर दिया। मौलवी हार कर भी जीत गए थे। उनका मजहब अपनी ही औरतों के खिलाफ खड़ा हो गया था। लेकिन अब लगता है कि अपने हक के लिए लड़ रही औरतें एक बार फिर मैदान में आ गई हैं। वे तीन तलाक के खेल को समाप्त करना चाहती हैं। मौलवियों के इस खेल ने उनके घरौंदे उजाड़ दिए हैं। फर्क केवल इतना ही है कि इस बार देश की सरकार उनके साथ है। मामला एक बार फिर देश के उच्चतम न्यायालय से ही संबंधित है। देखना है कि इस बार कौन जीतता है। मौलवी या इनसाफ?
समाज में उसकी प्रतिष्ठा कम नहीं होती, लेकिन तलाक से स्त्री सदा ही प्रश्नों के घेरे में आ जाती है। ऐसे प्रश्न जिनके लिए वह किसी भी तरह उत्तरदायी नहीं होती। फिर भी यदि ऐसी स्थिति आ जाए, जिसके चलते किसी पुरुष को लगता हो कि अब तलाक के बिना कोई विकल्प बचा नहीं है, तब भी उसके लिए लंबी कानूनी प्रक्रिया है। बहुधा इसी प्रक्रिया के बीच पति-पत्नी में पुन: समझौता हो जाता है और परिवार टूटने से बच जाता है। यहां तक कि यदि पति और पत्नी दोनों परस्पर सहमति से भी तलाक लेना चाहते हैं, तब भी न्यायालय उन्हें छह मास का समय देता है, इस आशा के साथ कि शायद इसी बीच दोनों के गिले-शिकवे दूर हो जाएं और परिवार टूटने से बच जाएं। इस पूरी व्याख्या के बाद, यह बिना संशय के कहा जा सकता है कि तलाक जिस कारण से भी हो, उसके बाद शेष जीवन का नरक औरत और उसके बच्चों को ही भोगना पड़ता है।
इसके विपरीत आधुनिक युग में भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो विवाह को मौज-मस्ती मानते हैं और जब इच्छा हो, तो पत्नी को छोड़ कर पल्ला झाड़ लेते हैं। पल्ला झाडऩे का उनका तरीका बहुत ही आसान है। अपनी पत्नी को तीन बार कहा, तलाक, तलाक, तलाक और उस बेचारी का काम हो गया तमाम। जब तक वह बेचारी समझ पाए, तब तक उसका आशियाना उजड़ चुका होता है। जिस घर को उसने अपना घर समझ लिया था, वह एकतरफा तलाक, तलाक, तलाक के तीन शब्दों से, उसके लिए बंद हो जाता है। बेचारी औरत अपने बच्चों की अंगुली थामे आंगन में खड़ी होती है और दरवाजे के अंदर उसका शौहर ठहाके लगा रहा होता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने ठीक ही कहा है-तीन बार तलाक का उच्चारण एक प्रकार से इक्कीसवीं शताब्दी में भी द्रौपदी के चीर हरण के समान है, लेकिन ये जो बंद दरवाजों के पीछे तलाक, तलाक, तलाक चिल्लाने के बाद अट्टहास कर रहे हैं, उनका कहना है कि उनका मजहब उन्हें अपनी पत्नी को केवल तीन बार तलाक शब्द का उच्चारण कर देने मात्र से पत्नी को छोड़ देने का अधिकार देता है। कोई भी मजहब इस प्रकार के अन्याय और अमानवीय कृत्य को जायज कैसे ठहरा सकता है। लेकिन इसका उत्तर देने की जरूरत उन मर्दों या शौहरों को नहीं है, जिन्होंने तलाक चिल्लाने में महारत हासिल कर ली होती है। उनकी ओर से उत्तर देने के लिए मुल्ला-मौलवी हाजिर हैं। वे पन्ने पलटते हुए खुलासा करते हैं कि हमारा मजहब तीन बार तलाक चिल्ला देने मात्र से विवाह को समाप्त कर देता है। काला बुर्का पहन कर सड़क पर तलाकशुदा औरतें हैरान हैं कि कोई भी मजहब भला ऐसा कैसे कर सकता है? लेकिन मौलवी गुस्से में अपनी मु_ियां भींचते हुए न जाने किस भाषा में अपने इस मजहब की रक्षा के लिए कमर कसे हुए हैं। सड़क पर खड़ी औरतों को इन मौलवियों की भाषा समझ नहीं आती और मौलवियों को इन बेसहारा औरतों के अंदर से निकल रही चीखें सुनाई नहीं देतीं। एक बात इन औरतों को समझ नहीं आ रही कि जब सारे देश में तलाक के लिए एक कानून है, तो इन्हीं अभागी औरतों को उस कानून से वंचित क्यों रखा जा रहा है? मुल्ला-मौलवियों का किसी अनजान भाषा में वही उत्तर है।
उनका मजहब इसकी इजाजत नहीं देता। किसी औरत ने मौलवी से आखिर पूछ ही लिया। आपका मजहब सिर माथे पर, लेकिन यदि हमारा शौहर तीन बार तलाक चिल्ला देने से पत्नी को छोड़ सकता है, तो क्या औरत भी तीन बार तलाक कह कर अपने शौहर को छोड़ सकती है। मौलवियों की भौहें तन जाती हैं। लाहौल बिलाकुबत! ऐसा कैसे हो सकता है? हमारा मजहब यह हक केवल मर्दों को देता है। केवल मर्दों को। काला बुर्का पहने इन औरतों को मौलवियों के मजहब ने चारों ओर से घेरा हुआ है। वे भाग नहीं सकतीं, लेकिन अब इनके और इनके बच्चों का भरण-पोषण कौन करेगा? देश की अन्य औरतों को यह अधिकार प्राप्त है कि तलाक के बाद भी उनका पूर्व पति उसके और उसके बच्चों को भरण-पोषण के लिए धनराशि दे, लेकिन काला बुर्का पहने ये औरतें अपने लिए पूर्व पतियों से नियमित निर्वाह भत्ता भी नहीं मांग सकतीं। मौलवियों के अनुसार उसकी इजाजत भी उनका मजहब नहीं देता। जब पति ने मेहर की राशि वापस कर दी है, तो अब निर्वाह भत्ता क्यों दिया जाए? मौलवियों के पास काले बुर्के में लिपटी इन तमाम औरतों के तमाम सवालों का जवाब है, लेकिन यह समझ नहीं आता कि हर जवाब औरत के ही खिलाफ क्यों है? यही जानने के लिए इनमें से एक औरत चलते-चलते अंत में देश के उच्चतम न्यायालय के दरवाजे तक पहुंच गई। उसने फरियाद लगाई थी कि आप मर्दों की तीन बार तलाक चिल्ला देने की परंपरा को तो नहीं रोक सकते, क्योंकि ये मौलवी आपको ऐसा करने नहीं देंगे, लेकिन कम से कम आप मेरे पूर्व शौहर से गुजारा भत्ता तो दिलवा सकते हैं। इतना इनसाफ मांगने की हकदार तो हम भी हैं। उच्चतम न्यायालय के दरवाजे पर खड़ी यह औरत शाहबानो थी। मौलवी तब भी चिल्ला रहे थे। उनके लिहाज से इससे बड़ा कुफर नहीं हो सकता। मौलवियों का मजहब इनसाफ की ऐसी चोट बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। लेकिन न्यायपालिका की हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी कि उसने शाहबानों को इनसाफ दे दिया। शाहबानो जीत गई। न्यायालय ने कहा, देश के कानून के अनुसार शाहबानों गुजारा भत्ते की हकदार है। पहली बार मौलवी हार गए थे और इनसाफ की मांग कर रहीं बुर्के में लिपटी औरतें जीत गई थीं। लेकिन मौलवी हार कर भी हारे नहीं थे और बुर्के में लिपटी औरतें जीत कर भी जीती नहीं थीं। अब की बार देश की सरकार मौलवियों के हक में खड़ी हो गई थी। वह शाहबानाओं के खिलाफ डट गई थी। देश की संसद ने उच्चतम न्यायालय में इनसाफ हासिल कर चुकी शाहबानों को पराजित कर दिया। मौलवी हार कर भी जीत गए थे। उनका मजहब अपनी ही औरतों के खिलाफ खड़ा हो गया था। लेकिन अब लगता है कि अपने हक के लिए लड़ रही औरतें एक बार फिर मैदान में आ गई हैं। वे तीन तलाक के खेल को समाप्त करना चाहती हैं। मौलवियों के इस खेल ने उनके घरौंदे उजाड़ दिए हैं। फर्क केवल इतना ही है कि इस बार देश की सरकार उनके साथ है। मामला एक बार फिर देश के उच्चतम न्यायालय से ही संबंधित है। देखना है कि इस बार कौन जीतता है। मौलवी या इनसाफ?
0 टिप्पणियाँ :
एक टिप्पणी भेजें