वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को नृसिंह चतुर्दशी कहा जाता है। शास्त्रों के अनुसार इस दिन श्री हरि विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्याकश्यिपु का वध किया। भगवान विष्णु ने आधे नर और आधे सिंह के रूप में नृसिंह अवतार धारण कर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की। पुराणों में उल्लेख है कि भगवान विष्णु, भगवान शिव को अनोखा उपहार देना चाहते थे और यह उपहार बिना नृसिंह अवतार लिए संभव नहीं था।
भगवान नृसिंह ने जब हिरण्याकश्यिपु का वध कर दिया तब भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ और वह संसार का अंत करने को आतुर थे। यह देख देवता भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने अपने अंश से उत्पन्न वीरभद्र से कहा कि नृसिंह से निवेदन करो कि वह ऐसा न करें। यदि अनुरोध न मानें तो शक्ति का प्रयोग कर नृसिंह को शांत करो। वीरभद्र, नृसिंह के पास पहुंचे और विनीत भाव से उन्हें शांत करने की कोशिश की।
जब नृसिंह नहीं माने तब वीरभद्र ने शरभ रूप धारण किया। नृसिंह को वश में करने के लिए वीरभद्र गरुड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण कर प्रकट हुए और शरभ कहलाए। शरभ ने नृसिंह को अपने पंजे से उठा लिया और चोंच से वार करने लगे। उनके वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया और भगवान शिव से निवेदन किया कि उनके चर्म को भगवान शिव अपने आसन के रूप में स्वीकार करें। इसके बाद नृसिंह, भगवान विष्णु के तेज में मिल गए और भगवान शिव ने इनके चर्म को अपना आसन बना लिया। इसलिए शिव बाघ की खाल पर विराजते हैं।
भगवान नृसिंह ने जब हिरण्याकश्यिपु का वध कर दिया तब भी उनका क्रोध शांत नहीं हुआ और वह संसार का अंत करने को आतुर थे। यह देख देवता भगवान शिव के पास पहुंचे। भगवान शिव ने अपने अंश से उत्पन्न वीरभद्र से कहा कि नृसिंह से निवेदन करो कि वह ऐसा न करें। यदि अनुरोध न मानें तो शक्ति का प्रयोग कर नृसिंह को शांत करो। वीरभद्र, नृसिंह के पास पहुंचे और विनीत भाव से उन्हें शांत करने की कोशिश की।
जब नृसिंह नहीं माने तब वीरभद्र ने शरभ रूप धारण किया। नृसिंह को वश में करने के लिए वीरभद्र गरुड़, सिंह और मनुष्य का मिश्रित रूप धारण कर प्रकट हुए और शरभ कहलाए। शरभ ने नृसिंह को अपने पंजे से उठा लिया और चोंच से वार करने लगे। उनके वार से आहत होकर नृसिंह ने अपना शरीर त्यागने का निर्णय लिया और भगवान शिव से निवेदन किया कि उनके चर्म को भगवान शिव अपने आसन के रूप में स्वीकार करें। इसके बाद नृसिंह, भगवान विष्णु के तेज में मिल गए और भगवान शिव ने इनके चर्म को अपना आसन बना लिया। इसलिए शिव बाघ की खाल पर विराजते हैं।
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