धरती की जन्नत कही जाने वाली कश्मीर
धरती की जन्नत कही जाने वाली कश्मीर घाटी में जड़ें जमा चुके आतंकवाद से निपटने के लिए केंद्र सरकार और सेना द्वारा की जा रही सख्त कार्रवाइयों के परिणाम सामने आ रहे हैं। आतंकवादियों के स्थानीय सरगना एक-एक करके अपनी करनी का फल भोगते हुए मौत के मुंह में समा रहे हैं। पहले बुरहान वानी, फिर सबजार और अब जुनैद की मौत निश्चित रूप से आतंकियों के लिए हताशा का सबब है। बुरहान वानी के मारे जाने के बाद आतंकियों ने कश्मीर में किस कदर गदर मचाया, यह बताने की जरूरत नहीं है, लेकिन जिस तरह कश्मीर का स्थानीय अवाम आतंकियों का मददगार साबित हो रहा है, यह जरूर हतप्रभ और निंदा करने योग्य है। इसके लिए एक ओर जहां अलगाववादी नेता जिम्मेदार हैं तो अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं को भी पाक-साफ करार नहीं दिया जा सकता, जो कश्मीर के हालातों को अपने नफे-नुकसान के समीकरण को देखते हुए भुनाने में लगे रहते हैं। कश्मीर में इस समय हालात लगभग वैसे ही होते जा रहे हैं जैसे कि वर्ष 1990 में थे जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से पलायन करने को विवश कर दिया गया था। हिन्दु मिटाओ-हिन्दू भगाओ अभियान चलाने से पहले 1984 से 86 के बीच में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के मुस्लिम जिहादियों को भारतीय कश्मीर में बसाया गया और घाटी में जनसंख्या संतुलन मुस्लिम जिहादियों के पक्ष में बनाकर हिन्दुओं पर हमले शुरू करवाए गए। ये सब पाकिस्तान के इशारे पर हुआ, पर इसमें स्थानीय लोग भी पूरी तरह शामिल थे। यह वह समय था जब मुस्लिम जिहादियों द्वारा प्रशासन में बैठे अपने साथियों के सहयोग से हिन्दुओं पर अत्याचारों का सिलसिला बेरोकटोक जारी था। करोड़ों के मालिक कश्मीरी पंडित अपनी पुश्तैनी जमीन जायदाद छोड़कर शरणार्थी शिविरों में रहने को मजबूर हो गए। हिंसा के उस दौर में 300 से अधिक हिंदू महिलाओं और पुरुषों की हत्या हुई थी। घाटी में कश्मीरी पंडितों के बुरे दिनों की शुरुआत 14 सितंबर 1989 से हुई थी। मुस्लिम जिहादियों द्वारा चलाए जा रहे हिन्दू मिटाओ-हिन्दू भगाओ अभियान की सफलता के पीछे जम्मू-कश्मीर की देशविरोधी सेकुलर सरकारों का योगदान पाकिस्तान से कहीं ज्यादा है।
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