शुक्रवार, अप्रैल 28, 2017

पत्थरबाजी और गोलियां रोकनी ही होंगी : महबूबा

'संवाद ही एकमात्र रास्ता'


 दीपाक्षर टाइम्स संवाददाता
जम्मू।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से 25 मिनट तक चली मुलाकात के बाद जम्मू और कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने मीडिया से बातचीत के आखिर में कहा 'संवाद ही एकमात्र रास्ता है।' लेकिन मुख्यमंत्री मुफ्ती ने इसके साथ ही यह कहते हुए खुद को ही चेतावनी दे दी कि सबसे पहले पत्थरबाजी और सरकार की ओर से गोलियों को रोका जाना होगा।
प्रधानमंत्री से मुलाकात के बारे में महबूबा ने विश्वास से भरे स्वर में कहा है कि हमें वहां से शुरुआत करने के लिए जहां कि अटल बिहारी वाजपेयी ने छोड़ा था, सबसे पहले माहौल को बातचीत के अनुकूल बनाना होगा। जबकि इस तरह का कोई आश्वासन लगता नहीं है कि महबूबा को प्रधानमंत्री से मिला है। दरअसल पत्थरबाजों से सख्ती से निपटने के बढ़ते शोर के बीच इधर यह मांग भी बढ़ती जा रही है कि एक सकारात्मक गर्मी का मौसम कश्मीर में हो इसके लिए जरूरी है कि वहां के लोगों से सीधे बात की जाए।
कश्मीर के मुद्दे पर नजर रखने वाले लोगों का कहना है कि मोदी-महबूबा की मुलाकात के पीछे दिल्ली में चल रही वह चर्चा है जिसके अनुसार जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन के विकल्प पर केंद्र विचार कर रहा है। इस विकल्प के बारे में कांग्रेस और नेशनल कान्फ्रेंस भी यह कह रहे हैं महबूबा वांछित परिणाम नहीं दे पाई हैं इसलिए अब सीधे दिल्ली का शासन जरूरी हो गया है।
इस संबंध में पूछे जाने पर महबूबा ने पत्रकारों को सधा हुआ संक्षिप्त जवाब दिया कि इसका जवाब केंद्र को देना है। ज़ाहिरा तौर पर महबूबा इस मांग से बेअसर दिखीं, लेकिन हकीकत यह है कि इस विकल्प को इसलिए बढ़ावा दिया जा रहा है कि महबूबा को इस संकट से निपटने के लिए नरम और समझौतावादी रवैया अपनाने के बजाय सख्ती दिखाने के लिए तैयार किया जा सके।
प्रधानमंत्री मोदी खुद 2 अप्रैल को श्रीनगर-जम्मू राजमार्ग पर सुरंग का उद्धाटन करते हुए अपेक्षाकृत एक सख्त संदेश दे चुके हैं जब उन्होंने कहा था कि कश्मीर के युवाओं को आतंकवाद और पर्यटन में से किसी एक को चुनना होगा। जमीन पर इसका कोई अच्छा असर नहीं हुआ और इसे प्रधानमंत्री के स्तर से आ रही एक धमकी की तरह देखा गया, जबकि उनसे उम्मीद की जा रही थी कि वे कश्मीर के नाराज युवाओं से संवाद स्थापित करने की कोशिश करेंगे।
इसके बाद राज्य में अभूतपूर्व छात्र असंतोष देखने को मिला है जिसकी शुरुआत दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले के एक डिग्री कॉलेज में हुई घटना से हुई थी। इस घटना के बाद समुदायाकि असंतोष के एक नये चरण की शुरुआत हो गई जब विश्वविद्यालयों, कॉलेजों और हायर सेकेंडरी स्कूलों से छात्र निकलकर प्रत्येक नुक्कड़ और चौराहे पर बिखर गए और पुलिस पर पथराव के तीखे संघर्ष में उलझ गए।
सरकार ने इससे निपटने के लिए एक सप्ताह के लिए स्कूलों और कॉलेजों को बंद कर दिया कि तब तक माहौल कुछ बदलेगा और लोगों का गुस्सा शांत हो जाएगा। पर जब आज स्कूल फिर से खुले तो श्रीनगर के केंद्र में मौजूद मुख्य एसपी कॉलेज और उससे सटे हुए हायर सेकेंडरी स्कूल फिर से हिंसक विरोध संघर्ष के साथ फट पड़े। सड़क पर दिखने वाला यह गुस्सा दिल्ली के उस नकरात्मक रवैये का जवाब है जिसमें कश्मीर को एक राजनीतिक मुद्दा स्वीकार करने से इंकार किया जाता रहा है। महबूबा ने स्वीकार किया है कि पत्थरबाजी में शामिल कुछ युवा जहां निराश-हताश हैं वहीं कुछ युवाओं को गुमराह किया गया है। पर यह सही मूल्यांकन नहीं है। महबूबा ने खुद युवाओं के इस गुस्से का प्रतिनिधित्व किया है और बेहतर जानती हैं। संभवत: सरकार में होने के कारण उन्होंने यह रवैया अख्तयार किया है पर वे कश्मीर के ताजा हालात से निपटने के लिए लगातार वाजपेयी की पहल को आगे बढ़ाने का आह्वान करती रहती हैं। मीटिंग के बाद उन्होंने जो संदेश दिया वह उतना सकारात्मक नहीं है जितना कि जमीनी हकीकत मांग करती है।
दिल्ली की सोच नहीं बदली है और यह अब भी 'कानून और व्यवस्था' के ढांचे में ही बंद बनी हुई है। यह सोच सैनिक निदान की है और अगर चीजें नहीं बदलीं तो यह पूरी ताकत से इस्तेमाल की जा सकती है। इससे जाहिर है हालात और बेकाबू होंगे और अगर यहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है तो अंतररराष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली को जवाब देना होगा।  नंतनाग में चुनाव स्थगित करने के बाद दिल्ली पहले ही उनके सामने आत्मसमर्पण के संकेत दे चुका है जो नहीं चाहते कि चुनाव हों। लोगों ने बहुमत से इस चुनाव प्रक्रिया को सफल नहीं होने दिया और इससे पाकिस्तान को यह शोर मचाने में सहायता मिली है कि कैसे कश्मीरी भारतीय प्रणाली को पसंद नहीं करते हैं। और अगर राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है तो लोकतंत्र का मुखौटा भी आगे आने वाले कुछ सालों के लिए नहीं रहेगा। क्या मोदी के नेतृत्व में चलने वाली सरकार अंतराष्ट्रीय स्तर पर इस सबका सामना कर पाएगी? शायद नहीं, इसलिए वे महबूबा से वह सब करवाने की कोशिशि करेंगे जो कि वे करना चाहते हैं, चाहे वे सारे उपाय महबूबा पर ही भारी क्यों न पड़ें। पीडीपी इस समय कमजोर विकेट पर है और गठबंधन के एजेंडे को स्वीकार न करने वाली भाजपा से हाथ मिलाने के कारण जमीनी स्तर पर साख के संकट से जूझ रही है।
बड़ी पार्टी होने के नाते उसने यह दिखाया है कि वह भाजपा की दया पर है। यही वजह है कि इस एजेंडा ऑफ एलायंस के शिल्पी हसीब द्राबू, जो कि जम्मू—कश्मीर सरकार में वित्त मंत्री भी हैं, दौड़ते हुए जम्मू भाजपा के कार्यालय में राम माधव से मिलने पहुंचे। किसी कश्मीरी नेता ने अब तक ऐसी कमजोरी नहीं दिखाई है। इसने दिखा दिया है कि कौन सी पार्टी नेतृत्व कर रही है। इतना ही नहीं, अब तक पीडीपी के एजेंडा ऑफ एलायंस के एक भी बिंदु का क्रियान्वयन नहीं किया गया है जबकि भाजपा के चुनावी घोषणा के तीन बिंदुओं को पूरे जोर-शोर से लागू किया गया है। आज जबकि मोदी सरकार अंधराष्ट्रवाद और कश्मीर में सख्ती की बात कर रही है, तो यह स्थितियों के साथ मेल नहीं खाता है। वाजपेयी की तरीका टकराव का नहीं बल्कि सुलह-समझौते और हाथ बढ़ाने का था। अगर केंद्र में भाजपा की सरकार सामान्य हालात जैसा कुछ दिखाना चाहती है तो उसे सैन्यीकरण के मार्ग को छोड़कर नीचे दिए गए उपायों को अपनाना चाहिए:
महबूबा सरकार को हालात से खुद निपटने के लिए जरूरी समर्थन देना चाहिए और इसमें दिल्ली को दखल नहीं देना चाहिए।
अलगाववादी त्रिमूर्ति गिलानी, मीरवायज और यासिन के साथ बात करने के लिए एक घोषणा।
कश्मीर पर बात करने के लिए पाकिस्तान के साथ जरूरी रास्तों को खोलना चाहिए।
जम्मू क्षेत्र में संघ परिवार द्वारा चलाई जा रहीं मुस्लिम विरोधी गतिविधियों को बंद कर देना चाहिए।
इसके मंत्रियों को शासन के लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए।
ऐसी लोकतांत्रिक जगह बनाई जाए जहां युवा संवाद करें और अपने विचारों से अवगत करा सके।
यह स्वीकार किया जाए कश्मीर एक राजनीतिक मुद्दा है और इसे सुलझाने के लिए राजनीतिक पहल की जरूरत है।
कश्मीर का इतिहास इस बात का गवाह है कि अगर आप यहां ताकत का इस्तेमाल करते हैं तो इसकी प्रतिक्रिया और अधिक गुस्से और आंदोलन के रूप में देखने में आती है। महबूबा ने यह स्वीकार किया है कि आगे आने वाले दो-तीन माह निर्णायक होने जा रहे हैं, इसके साथ ही उनको स्थिति की गंभीरता से केंद्र को अवगत कराना होगा। अगर यह नहीं किया गया तो सकारात्मकता सिर्फ एक सपना बन कर ही रह जाएगी।
जो लोग पर्यटन के रास्ते कश्मीर में सामान्य हालात बहाल होने की बात कर रहे हैं उनको यह समझना होगा कि सिर्फ शांति और स्थिरता ही ऐसा होने में मदद कर सकती है, पर इसके लिए रास्ता राजनीतिक तरीकों से होकर जाता है न कि सुरक्षा की सोच के तरीकों से।

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