बुधवार, अप्रैल 05, 2017

राम राज्य का न्याय

भारत के तौर तरीके हमेशा से ऐसे ही रहे हैं। जब हर किसी को लगता है कि यह संस्कृति नष्ट हो गई, हर सीमा से परे भ्रष्ट हो गई, तो अचानक कोई बहुत बढिय़ा उदाहरण आपके सामने आ खड़ा होगा, जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा कि 'हां अभी एक उम्मीद है।' रामराज्य एक ऐसा ही उदाहरण है। इससे जुड़ी एक रोचक कथा देखने को मिलती है...

राम राज्य का न्यायराम राज्य का न्यायभारत में राम राज्य को एक न्यायपूर्ण राज्य व्यवस्था के पर्याय के रूप में जाना जाता है। यही इस देश की सुंदरता, संयम और अनोखी प्रकृति है। सारी अव्यवस्था, भ्रम और भ्रष्टाचार की स्थिति के बीच से अचानक कोई बढिय़ा उदाहरण सामने आकर हर किसी को चकित कर देता है। भारत के तौर तरीके हमेशा से ऐसे ही रहे हैं। जब हर किसी को लगता है कि यह संस्कृति नष्ट हो गई, हर सीमा से परे भ्रष्ट हो गई, तो अचानक कोई बहुत बढिय़ा उदाहरण आपके सामने आ खड़ा होगा, जो आपको सोचने पर मजबूर कर देगा कि 'हां अभी एक उम्मीद है।' राम राज्य एक ऐसा ही उदाहरण है। इससे जुड़ी एक रोचक कथा देखने को मिलती है। प्राचीन काल में इस देश के उत्तरी भाग में एक बहुत प्रसिद्ध मठ था, जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता था। कालिंजर मठ उस समय का एक प्रसिद्ध मठ था। राम के आने से पहले भी कालिंजर मठ का खूब नाम था। राम को बहुत न्यायप्रिय और कल्याणकारी राजा माना जाता था। वह हर दिन दरबार में बैठकर लोगों की समस्याएं हल की कोशिश करते थे। एक दिन शाम को, जब दिन ढल रहा था,उन्हें दरबार की कार्यवाही समेटनी थी। जब वह सभी लोगों की समस्याएं सुन चुके थे, तो उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण, जो उनके परम भक्त थे, से बाहर जाकर देखने को कहा कि कोई और तो इंतजार नहीं कर रहा। लक्ष्मण ने बाहर जाकर चारों ओर देखा और वापस आकर बोले,' कोई नहीं है। आज का हमारा काम अब खत्म हो गया है।' राम बोले, 'जाकर देखो, कोई हो सकता है।' यह थोड़ी अजीब बात थी, लक्ष्मण अभी-अभी बाहर से देख कर आ चुके थे। इसलिए लक्ष्मण फिर से गए और चारों ओर देखा, वहां कोई नहीं था। वह अंदर आने ही वाले थे, तभी उनकी नजर एक कुत्ते पर पड़ी जो बहुत उदास चेहरा लिए बैठा था और उसके सिर पर एक चोट थी। तब उन्होंने कुत्ते को देखा और उससे पूछा, 'क्या तुम किसी चीज का इंतजार कर रहे हो?' कुत्ता बोलने लगा, 'हां! मैं राम से न्याय चाहता हूं।' तो लक्ष्मण बोले, 'तुम अंदर आ जाओ' और वह उसे दरबार में ले गए। कुत्ते ने आकर राम को प्रणाम किया और बोलने लगा। वह बोला, 'हे राम! मैं न्याय चाहता हूं। मेरे साथ बेवजह हिंसा की गई है। मैं चुपचाप बैठा हुआ था, सर्वथासिद्ध नाम का यह व्यक्ति आया और बिना किसी वजह के मेरे सिर पर छड़ी से वार किया। मैं तो बस चुपचाप बैठा हुआ था। मैं न्याय चाहता हूं।Ó राम ने तत्काल सर्वथासिद्ध को बुलावा भेजा, जो एक भिखारी था। उसे दरबार में लाया गया। राम ने पूछा, 'तुम्हारी कहानी क्या है? यह कुत्ता कहता है कि तुमने बिना वजह उसे मारा।' सर्वथासिद्ध बोला, 'हां, मैं इस कुत्ते का अपराधी हूं। मैं भूख से बौखला गया था, मैं गुस्से में था, निराश था। यह कुत्ता मेरे रास्ते में बैठा हुआ था इसलिए मैंने बेवजह इस कुत्ते के सिर पर आघात किया। आप मुझे जो भी सजा देना चाहें, दे सकते हैं।' राम ने यह बात अपने मंत्रियों और दरबारियों के सामने रखी और बोले, 'आप लोग इस भिखारी के लिए क्या सजा चाहते हैं?' उन सब ने इस बारे में सोचकर कहा, 'एक मिनट रुकिए, यह बहुत ही पेंचीदा मामला है। पहले तो इस मामले में एक इनसान और एक कुत्ता शामिल हैं, इसलिए हम सामान्य तौर पर जिन कानूनों को जानते हैं, वे इस पर लागू नहीं होंगे। इसलिए राजा होने के नाते यह आपका अधिकार है कि आप फैसला सुनाएं।' फिर राम ने कुत्ते से पूछा, 'तुम क्या कहते हो, क्या तुम्हारे पास कोई सुझाव है?' कुत्ता बोला, 'हां, मेरे पास इस व्यक्ति के लिए एक उपयुक्त सजा है। इसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दीजिए।' राम ने कहा, 'तथास्तु।' भिखारी को प्रसिद्ध कालिंजर मठ का मुख्य महंत बना दिया गया। राम ने उसे एक हाथी दिया, भिखारी इस सजा से बहुत प्रसन्न होते हुए हाथी पर चढ़कर खुशी-खुशी मठ चला गया। दरबारियों ने कहा, 'यह कैसा फैसला है? क्या यह कोई सजा है? वह आदमी तो बहुत खुश है।' फिर राम ने कुत्ते से पूछा, 'क्यों नहीं तुम ही इसका मतलब बताते?' कुत्ते ने कहा,'पूर्वजन्म में मैं कालिंजर मठ का मुख्य महंत था और मैं वहां इसलिए गया था क्योंकि मैं अपने आध्यात्मिक कल्याण और उस मठ के लिए सच्चे दिल से समर्पित था, जिसकी बहुत से दूसरे लोगों के आध्यात्मिक कल्याण में महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। मैं वहां खुद के और हर किसी के आध्यात्मिक कल्याण के संकल्प के साथ वहां गया और मैंने इसकी कोशिश भी की। मगर जैसे-जैसे दिन बीते, धीरे-धीरे दूसरे छिटपुट विचारों ने मुझे प्रभावित करना शुरू कर दिया। मुख्य महंत के पद के साथ आने वाले नाम और ख्याति ने कहीं न कहीं मुझ पर असर डालना शुरू कर दिया। कई बार मैं नहीं, मेरा अहं काम करता था। कई बार मैं लोगों की सामान्य स्वीकृति का आनंद उठाने लगता था। लोगों ने मुझे एक धर्मगुरु की तरह देखना शुरू कर दिया। अपने अंदर मैं जानता था कि मैं धर्मगुरु नहीं हूं मगर मैंने किसी धर्मगुरु की तरह बर्ताव करना शुरू कर दिया और उन सुविधाओं की मांग करना शुरू कर दिया, जो आम तौर पर किसी धर्मगुरु को मिलनी चाहिए। मैंने अपने संपूर्ण रूपांतरण की कोशिश नहीं की, मगर उसका दिखावा करना शुरू कर दिया और लोगों ने भी मेरा समर्थन किया। ऐसी चीजें होती रहीं और धीरे-धीरे अपने आध्यात्मिक कल्याण के लिए मेरी प्रतिबद्धता घटने लगी और मेरे आसपास के लोग भी कम होने लगे। कई बार मैंने खुद को वापस लाने की कोशिश की मगर अपने आसपास जबरदस्त स्वीकृति को देखते हुए मैं कहीं खुद को खो बैठा। इस भिखारी सर्वथासिद्ध में गुस्सा है, अहं है, वह कुंठित भी है, इसलिए मैं जानता हूं कि वह भी खुद को वैसा ही दंड देगा, जैसा मैंने दिया था। इसलिए यह उसके लिए सबसे अच्छी सजा है, उसे कालिंजर मठ का मुख्य महंत बनने दीजिए।'
 -सद्गुरु जग्गी वासुदेव के विचारों के संपादित अंश

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