रविवार, अप्रैल 02, 2017

दोस्त होते ही इसलिए हैं कि वे संकट में एक-दूसरे की मदद करें। सच है दोस्ती का कोई मूल्य नहीं होता।

दोस्ती



सुरेश ने पांचवीं कक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की थी। छठी कक्षा में प्रवेश की बात आई तो उसके पिता ने इनकार कर दिया। उनका कहना था कि वे अब उसे नहीं पढ़ा सकते तथा उसे उनके छोटे-मोटे कामों में हाथ बंटाना चाहिए, ताकि घर को चलाया जा सके। दरअसल सुरेश के पिता काफी गरीब थे। गांव में छोटा-सा खोमचा लगाते थे। खोमचे से बस इतनी ही आय हो पाती थी कि घर को खाना ही नसीब हो पाता था। पढ़ाई छुड़ाने की बात जानकर सुरेश का दिल उदास हो गया। वह आगे पढऩा चाहता था। एक दिन वह पिता से फिर बोला-बापू आप मेरी पढ़ाई मत छुड़ाइए। मैं आपके कामों में पढ़ते हुए भी पूरी मदद करूंगा।

सुरेश के बापू की आंखें भर आर्इं, उसे छाती से लगा कर बालों में हाथ फेरते हुए वे बोले-ऐसी बात नहीं है मेरे बेटे। काश, मैं तुम्हें पढ़ा पाता। लेकिन मेरी आर्थिक स्थिति काफी कमजोर है। स्कूल में दाखिले की व्यवस्था, फीस और किताबों के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। कौन पिता नहीं चाहता कि उसका बेटा पढ़-लिख कर बड़ा आदमी बने।

-लेकिन बापू किसी से ऋण लेकर आप मुझे प्रवेश दिला दीजिए, मैं स्वयं कमा कर चुका दूंगा।
सुरेश के बापू ने उसे गले लगा लिया और बोले- बेटा, काश! तुम मेरी स्थिति को समझ पाते। मेरी विवशता है कि मैं तुम्हें आगे पढ़ाने में समर्थ नहीं हूं। हमारे घर में बस इतना ही पढ़ पाये हैं सभी लोग।
पिता की मजबूरी समझकर उस समय तो सुरेश चुप हो गया। लेकिन, दूसरे दिन वह अपने दोस्त हरीश के पास गया। हरीश उसे उदास देख कर पूछ बैठा-क्यों सुरेश उदास क्यों हो?

-क्या बताऊं, हरीश। मैं अब तुम्हारे साथ नहीं पढ़ पाऊँगा। सुरेश ने भरे गले से कहा।
-क्यों नहीं पढ़ पाओगे?
-मेरे पिता प्रवेश की फीस, कॉपी-किताब और ड्रेस की व्यवस्था के लिए पैसा नहीं जुटा पा रहे।
-नहीं, यह नहीं हो सकता। अभी तो हमारी पढऩे की उम्र है। मैं तुम्हारे पिताजी से मिलूंगा।
-कोई फायदा नहीं है, हरीश। मेरे बापू घर का खर्च चला लेते हैं, यही बड़ी बात है। मैं तुम्हारे पास एक खास काम से आया हूं। मुझे तुम अपने पिताजी से दो सौ रुपया उधार दिला दो। मैं उन्हें खुद कमा कर चुका दूंगा। सच हरीश मैं आगे पढऩा चाहता हूँ। मैं कुछ करना चाहता हूं। तुम मेरी मदद करो हरीश। सुरेश ने कहा।

बड़े आत्मविश्वास के साथ हरीश बोला-चिंता मत करो सुरेश। दोस्त होते ही इसलिए हैं कि वे संकट में एक-दूसरे की मदद करें। आओ मैं अभी अपने पिताजी से बात करता हूं।
दोनों हरीश के पिता के पास पहुंचे और मुंह लटका कर खड़े हो गए। हरीश के पिता भी बहुत सामान्य सा बढ़ईगीरी का काम करते थे। ज्यादा आय नहीं थी। लेकिन दूसरों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते थे। दोनों को उदास देखा तो पूछा-क्यों आज दोनों दोस्त खामोश क्यों हैं?
हरीश बोला-पिताजी आपको मेरे दोस्त सुरेश की सहायता करनी होगी।
-क्यों बेटा क्या बात है।

-बात यह है पिताजी। सुरेश के पिता उसका स्कूल में प्रवेश नहीं करा पा रहे। आप उन्हें दो सौ रुपए उधार की व्यवस्था कीजिए।
एक पल को हरीश के पिता चुप रह गए। समझ में नहीं आया कि क्या कहें। उन्होंने सुरेश को देखा तो उन्हें हरीश की छाया नजर आई। उन्होंने उसे पास बुलाया और कहा-बेटा चिंता मत करो। तुम्हें प्रवेश मैं दिलाऊंगा। बस पचास रुपए कम रहेंगे। मेरे पास डेढ़ सौ रुपए की व्यवस्था तो है।
इस बार हरीश बोला-पचास रुपए की चिंता छोडि़ए पिताजी। पचास रुपए मेरे गुल्लक में हैं। आप जो हाथ खर्ची को पैसे दिया करते थे, मैंने उनमें से बचा कर गुल्लक में डाले हैं। वह बचत आज इस समय नहीं तो और कब काम आएगी।
सुरेश की आंखों में आंसू भर आए और वह बोला-मैं आपका धन्यवाद कैसे अदा करूं समझ में नहीं आ रहा।

हरीश के पिता ने छाती से लगाकर सुरेश को कहा-बेटा, यह तो हमारा कर्तव्य है। तुम भी मेरे लिए हरीश जैसे ही हो। फिर हरीश और तुम्हारी दोस्ती का मतलब ही क्या हुआ ?
फिर वे डेढ़ सौ रुपए ले आए, उधर हरीश गुल्लक में से पचास रुपए ले आया। इस तरह दो सौ रुपए सुरेश को देकर बोले-अब पढ़ाई छोडऩे की बात भी बात अपने दिमाग में मत लाना।

सुरेश ने अपने पिता को दो सौ रुपए देकर सारी कहानी समझाई तो उनकी आंखें पानी से भर आर्इं और वे बोले-बेटा दोस्त हो तो हरीश जैसा, और हरीश के पिता तो साक्षात देवता हैं। मैं उन्हें अभी जाकर धन्यवाद दूंगा।
सुरेश की आंखों में प्रसन्नता के आंसू छलक पड़े। सच है दोस्ती का कोई मूल्य नहीं होता।

0 टिप्पणियाँ :

एक टिप्पणी भेजें