शनिवार, अप्रैल 29, 2017

कोई रोडमैप नहीं

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में मुलाकात हुई। इसका महत्व इसलिए है क्योंकि मुलाकात कश्मीर घाटी के बिगड़े हालातों, पीडीपी और भाजपा में तनातनी व साझा सरकार की भटकी दशा-दिशा की बैकग्राउंड में हुई है। मुलाकात के बाद मेहबूबा मुफ्ती ने मीडिया से जो कहा उसका लबोलुआब है कि घाटी के पत्थर फेंकने वाले नौजवान सुनियोजित साजिश से भड़के हुए हंै। और जैसे अटलबिहारी वाजपेयी के वक्त में डॉयलॉग हुआ था वही हो तभी घाटी बच सकेगी। मेहबूबा के शब्दों में अटलबिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे और लालकृष्ण आडवाणी उप प्रधानमंत्री तब हुर्रियत आदि से बात हुई थी। सो वाजपेयीजी ने जहा छोडा है वही से शुरू हो। मोदीजी ने कई बार कहा है कि वे वाजपेयीजी के कदमों पर चलना पसंद करेंगे। उनकी पॉलिसी मेलमिलाप की थी न कि टकराव की। बातचीत के अलावा दूसरा कोई विकल्प नही है। मुख्यमंत्री मेहबूबा मुफ्ती ने यह भी कहा कि नौजवानों की कई सच्ची शिकायते हैं उन्हें हमे दूर करना होगा! जरूरत डॉयलाग की है। हम अपने ही लोगों से लंबे समय तक टकराव नहीं रख सकते। न ही हम तब वार्ता शुरू कर सकते है जब एक तरफ से पत्थर फेंके जा रहे हो तो दूसरी तरफ से गोलिया। उनके पिता (दिवगंत मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद) ने प्रदेश में स्थाई शांति का रोडमैप दिया था। कह सकते हंै मेहबूबा मुफ्ती ने जो कहा उससे कोई असहमत नहीं हो सकता। उन्होंने ये बाते निश्चित ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी कही होगी। सवाल है कि नरेंद्र मोदी या उनकी केंद्र सरकार या सरकार की साझेदार भाजपा सहमत होते हुए भी उनके सुझाव पर क्या करने की स्थिति में है? यह पहले भी मसला था आज भी मसला है कि कश्मीर घाटी के लोग, नौजवान पहले भड़के हुए थे तो आज भी भड़के हुए हंै। 1947 से ले कर आज तक सुनियोजित साजिश में लोगों के भड़के होने के पेंच का नाम ही तो कश्मीर समस्या है। पाकिस्तान ने भड़काया हुआ है और पाकिस्तान ने इसलिए क्योंकि उसके पीछे इस्लाम का सियासी मिशन है। तभी पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी ने भी बहुतेरी कोशिश की, मगर समाधान नहीं निकला। पिछले 70 सालों के इतिहास की हकीकत है कि पंडित नेहरू से ज्यादा अमन मसीहा दूसरा नहीं हुआ। शेख अब्दुला और घाटी के कश्मीरी मुसलमानों का दिल जीतने की जितनी कोशिश भारत के प्रधानमंत्रियों ने की है और उसके लिए जितना तन, मन, धन दिया है दुनिया में शायद ही किसी दूसरे देश ने ऐसा किया हो। 1947 से अब तक दुनिया में अलगाववादी, पृथकतावादी, उग्रवादी जितने भी आंदोलन हुए है, आयरिस से ले कर बास्क, फिलीस्तीनी, कुर्द, बलूचिस्तान आदि के तमाम मसले वक्त के साथ खत्म होते गए या दम तोडते हुए बुझते गए। मगर वैसा कुछ जम्मू-कश्मीर में नहीं हुआ तो वजह सिर्फ और सिर्फ भारत के नेताओं की दरियादिली थी।
उस दरियादिली का एक अनहोना रूप अटलबिहारी वाजपेयी का वक्त भी था। इसलिए कि वाजपेयी सत्ता में आने से पहले उन श्यामाप्रसाद मुकर्जी के सचिव होने, उनकी विचारधारा में रंगे हुए नेता थे जिनका नारा था एक देश, दो संविधान नहीं चलेगा, नहीं चलेगा। इसी विचार की प्रतिज्ञा ले कर जनसंघ, भाजपा और संघ परिवार ने जीवन गुजारा था।
मेहबूबा मुफ्ती ने मीडिया से जो कहा उसका लबोलुआब है कि घाटी के पत्थर फेंकने वाले नौजवान सुनियोजित साजिश से भड़के हुए हंै। और जैसे अटलबिहारी वाजपेयी के वक्त में डॉयलॉग हुआ था वही हो तभी घाटी बच सकेगी। और सत्ता आई तो क्या हुआ। अटलबिहारी वाजपेयी ने पंडित जवाहर लाल नेहरू से एक कदम आगे बढ़, अपना दिल बढ़ा कर इंसानियत, कश्मीरियत के ऐसे जुमले गढ़े कि हर कोई हैरान हुआ। सभी को अनोखा आश्चर्य हुआ कि वाह! वाजपेयी- आडवाणी ये क्या कमाल के नेता है! ये तो जुमलों से, डॉयलॉग से दिल जीतने वाले महापुरूष है। पर उससे क्या बना? वाजपेयी ने भाषण दिए, जुमले गढ़े, लाहौर की बस यात्रा की। परवेज मुर्शरफ को दिल्ली, आगरा बुला कर आम खिलाए। और अंत नतीजा न केवल घाटी के उग्रवादियों के जस के तस तैंवर थे बल्कि कारगिल भी हुआ। और जैसे वाजपेयी, आडवाणी ने दिल खोल इंसानियत, कश्मीरियत, जम्हूरियत के जुमले बोल अपने को अमन का मसीहा बनाना चाहा वैसा ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी किया है। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले और बाद में हर वह संभव काम किया जिससे लोगों का दिल जीता जा सके। संदेह नहीं इसमें मुफ्ती मोहम्मद के साथ साझा सरकार बनाने का फैसला मील के पत्थर वाली घटना थी। पीडीपी से समझौता, उसके गले लगाने का अर्थ था कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह दिल जीतने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है।
परिणाम सामने है। यक्ष प्रश्न की तरह बार-बार वह स्थिति, यह सवाल आ खड़ा होता है कि सबकुछ करते हंै लेकिन बार-बार सुनियोजित साजिश में नौजवान भड़के ही रहते है!
कश्मीर घाटी के लोग, नौजवान पहले भड़के हुए थे तो आज भी भड़के हुए हंै। 1947 से ले कर आज तक सुनियोजित साजिश में लोगों के भड़के होने के पेंच का नाम ही तो कश्मीर समस्या है।
मेहबूबा मुफ्ती कहती हंै, या फारूख अब्दुला, उमर अब्दुला कहते हंै कि डॉयलाग करो। बात करों। दरियादिली दिखाओं। दिलों को जोड़ो! पर इसकी जिम्मेदारी क्या खुद इन नेताओं की नहीं है? यदि दिवंगत मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने अमन का रोडमैप बनाया था तो मेहबूबा मुफ्ती या उनकी सरकार ने उस पर अमल में क्या किया? डायल़ॉग तो मुख्यमंत्री या प्रदेश सरकार के नेता, मंत्री ही करेंगे। ये क्या यह चाहते है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या गृह मंत्री राजनाथसिंह श्रीनगर जा कर हुर्रियत नेताओं के चक्कर लगाए। उन्हे सिर पर बैठाए। उन्हे कहे कि हम आपको सत्ता में बैठाते है और आप जम्मू-कश्मीर के अलग संविधान में इसे चाहे तो स्वतंत्र देश घोषित करें या इस्लामी स्टेट! या फिर यह रायशुमारी करवाए कि लोगों को भारत के साथ रहना है या पाकिस्तान के साथ!
पता नहीं मेहबूबा मुफ्ती नौजवानों की सच्ची शिकायतों में क्या समझती है? हिसाब से उनके पास सत्ता है। वे मालिक है। मुख्यमंत्री और उनके प्रशासन को ही बेरोजगारी, बदहाली जैसी शिकायतों का समाधान निकालना होता है। उनकी सरकार ने क्या किया? क्या केंद्र सरकार ने रोका? बहरहाल, मेहबूबा मुफ्ती और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात का अर्थ निकलता है कि न मेहबूबा का कोई रोडमैप है और न मोदी सरकार का। जैसा है वैसे चलेगा। न राज्य सरकार में हिम्मत या पकड़ है और न केंद्र सरकार का कोई निश्चय!

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