चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की 90वीं वर्षगांठ मनाए जाने से पहले महज 10 दिन बचे हैं। सैन्य क्षेत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के दबदबे को फिर से दिखाने के लिए, उम्मीद है कि इस मौके पर विशाल समारोह का आयोजन किया जाएगा।
कमांड के स्तर पर अभी चीनी सेना में काफ़ी बुनियादी बदलाव हुए हैं।
लेकिन इस आयोजन में पीएलए की कुछ सैन्य टुकडिय़ां हिस्सा नहीं ले पाएंगी, जो भारत के साथ तनाव के कारण सीमा पर तैनात हैं।
बातचीत के लिए 26-27 जुलाई को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल बीजिंग पहुंच रहे हैं। इसमें भी अभी पांच दिन ही बचे हुए हैं।
चीनी अधिकारी दबाव में हैं और उन्हें जल्द ही कुछ रास्ता निकालना होगा। वो कोई कार्रवाई करने से पहले डोभाल के दौरे को आज़मा लेना चाहते हैं।
बीते गुरुवार को चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि भारत के साथ बातचीत के कूटनीतिक रास्ते खुले हुए हैं।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लू कांग ने इस बात की पुष्टि की कि पांच सप्ताह पहले सिक्किम के पास शुरू हुए सैन्य तनाव को हल करने के लिए दोनों देशों के राजयनिक बातचीत कर रहे हैं।
हालांकि उनका इस बात पर ज़ोर था कि, दोनों देशों के बीच किसी भी अर्थपूर्ण बातचीत और सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए भारत की ओर से अपनी सेना को हटाना पहली शर्त है।
एक तरफ़ अनौपचारिक बातचीत पर राज़ी होने और दूसरी तरफ़ 'अर्थपूर्ण बातचीत' के जुमले के पीछे क्या चीनी अधिकारी कुछ छिपा रहे हैं? अगर हां, तो डोभाल के पास बीजिंग में किसी सहमति तक पहुंचने का मौका है।
चीन के सरकारी टीवी चैनल चाइना ग्लोबल टेलीविजऩ नेटवर्क के बहुत ही लोकप्रिय एंकर यांग रुई ने कहा है कि चीन के आम नागरिक पूछ रहे हैं कि चीनी सीमा में घुसने पर सरकार भारतीय सेना के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है?
लेकिन भारत के दवाब के ख़िलाफ़ नरम रुख दिखाना कम्युनिस्ट नेताओं के लिए बहुत मुश्किल है।
जिस तरह भारत ने पाकिस्तान पर कथित सर्जिकल स्ट्राइक की थी, उसी तरह एक सीमित हमले की संभावनाओं पर भी चीनी प्रशासन विचार कर चुका है।
इसके पीछे विचार ये है कि डोकलाम पठार के 80 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया जाए और सीमा पर ज़मीनी हालात को अपने पक्ष में कर लिया जाए।
इस बात की जानकारी, हू शीशांग जैसे चीन के सरकारी विशेषज्ञों के मीडिया साक्षात्कारों से पता चलती है। लेकिन चीन किसी सैन्य संघर्ष में क्यों नहीं उतरना चाहता? इसके कई कारण हैं। दो कारण तो रणनीतिक हैं।
पहला, इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वो जीत ही जाएगा क्योंकि इस इलाके में भारत ऊंचाई वाले इलाक़े पर काबिज़ है, जोकि पहाड़ के युद्ध में बहुत अहम बात होती है।
दूसरा, यह सीमित हमला एक लंबी लड़ाई में खिंच सकता है, जिससे घरेलू अर्थव्यवस्था के मंदी के दौर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग बचना चाहते हैं।
चीनी राजनयिक अन्य देशों के अधिकारियों से मिलकर डोकलाम पर अपना पक्ष रख रहे हैं और भारत को आक्रामक ठहरा रहे हैं।
वो इस तथ्य को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं कि डोकलाम भूटान में हैं क्योंकि पश्चिमी देश, छोटे देशों पर बड़े देशों के हमले को नापसंद करते हैं।
लेकिन ये राजनयिक, पश्चिमी देशों को ये समझाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश ने ही असल में, दुनिया के दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के इलाके में घुसपैठ की है।
चीन के लिए, इसकी उदारता पर निर्भर रहने वाले पाकिस्तान जैसे देशों को समझा पाना कहीं ज़्यादा आसान है।
भारत के ख़िलाफ़ अपने रुख के प्रति पश्चिमी देशों का समर्थन हासिल करने की उम्मीद चीन के लिए धूमिल हो चली है क्योंकि अभी हाल ही में वॉशिंगटन में हुई वार्षिक अमरीकी-चीनी रणनीतिक आर्थिक वार्ता के दौरान चीनी वार्ताकारों को गंभीर झटका लगा है।
दोनों पक्षों के बीच तब गतिरोध आ गया जब अमरीकी वार्ताकारों ने चीनी स्टील के डंपिंग को ख़त्म करने और चीनी सामानों के निर्यात के कारण पैदा हुए व्यापार घाटे को कम करने की मांग रख दी।
असंतुलित व्यापार संबंध को लेकर चीन के ख़िलाफ़ भारत की भी यही शिकायत रही है।
कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर मौजूद आक्रामक धड़ा, बीजिंग से डोकलाम में कब्ज़ा करने या भारतीय सैनिकों को मार डालने के आदेश देने को कह रहा है।
लेकिन सरकार इस तरह के आसान सुझावों को स्वीकार नहीं कर सकती क्योंकि भारत की जवाबी कार्रवाई में पीएलए के सैनिकों की मौत से झटका लगेगा और पीएलए के सालगिरह समारोह में विघ्न पड़ जाएगा।
मुंबई में चीन के पूर्व काउंसल जनरल लियू योउफ़ा ने एक स्थानीय टीवी चैनल से कहा है कि भारतीय सैनिक कब्ज़े या मौत को दावत दे रहे हैं क्योंकि उन्होंने चीनी इलाक़े में घुसपैठ की है।
उन्होंने कहा, "जब वर्दी पहने लोग सीमा पार करते हैं और दूसरे देश के इलाक़े में घुसते हैं, तो वो स्वाभाविक तौर पर दुश्मन बन जाते हैं, जिन्हें तीन नतीज़े भुगतने पड़ते हैं। पहला, वो स्वेच्छा से पीछे हट जाएं। या उन्हें पकड़ लिया जाए। और अगर तनाव बढ़ जाए तो वो मर भी सकते हैं। ये तीन संभावनाएं हैं।"
लेकिन संभावित नतीजा क्या है? डोभाल के दौरे का मतलब नहीं रह जाता, जबतक कि समझौते के बारे में उनके पास कोई योजना न हो।
सुषमा स्वराज पहले ही कह चुकी हैं कि भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटेंगे, जबकि ये चीन की पूर्व शर्त है।
अपने अपने नागरिकों के सामने अपना सम्मान बचाने के लिए दोनों पक्षों को समाधान की कड़ी ज़रूरत है।
कमांड के स्तर पर अभी चीनी सेना में काफ़ी बुनियादी बदलाव हुए हैं।
लेकिन इस आयोजन में पीएलए की कुछ सैन्य टुकडिय़ां हिस्सा नहीं ले पाएंगी, जो भारत के साथ तनाव के कारण सीमा पर तैनात हैं।
बातचीत के लिए 26-27 जुलाई को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल बीजिंग पहुंच रहे हैं। इसमें भी अभी पांच दिन ही बचे हुए हैं।
चीनी अधिकारी दबाव में हैं और उन्हें जल्द ही कुछ रास्ता निकालना होगा। वो कोई कार्रवाई करने से पहले डोभाल के दौरे को आज़मा लेना चाहते हैं।
बीते गुरुवार को चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा था कि भारत के साथ बातचीत के कूटनीतिक रास्ते खुले हुए हैं।
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लू कांग ने इस बात की पुष्टि की कि पांच सप्ताह पहले सिक्किम के पास शुरू हुए सैन्य तनाव को हल करने के लिए दोनों देशों के राजयनिक बातचीत कर रहे हैं।
हालांकि उनका इस बात पर ज़ोर था कि, दोनों देशों के बीच किसी भी अर्थपूर्ण बातचीत और सूचनाओं के आदान प्रदान के लिए भारत की ओर से अपनी सेना को हटाना पहली शर्त है।
एक तरफ़ अनौपचारिक बातचीत पर राज़ी होने और दूसरी तरफ़ 'अर्थपूर्ण बातचीत' के जुमले के पीछे क्या चीनी अधिकारी कुछ छिपा रहे हैं? अगर हां, तो डोभाल के पास बीजिंग में किसी सहमति तक पहुंचने का मौका है।
चीन के सरकारी टीवी चैनल चाइना ग्लोबल टेलीविजऩ नेटवर्क के बहुत ही लोकप्रिय एंकर यांग रुई ने कहा है कि चीन के आम नागरिक पूछ रहे हैं कि चीनी सीमा में घुसने पर सरकार भारतीय सेना के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है?
लेकिन भारत के दवाब के ख़िलाफ़ नरम रुख दिखाना कम्युनिस्ट नेताओं के लिए बहुत मुश्किल है।
जिस तरह भारत ने पाकिस्तान पर कथित सर्जिकल स्ट्राइक की थी, उसी तरह एक सीमित हमले की संभावनाओं पर भी चीनी प्रशासन विचार कर चुका है।
इसके पीछे विचार ये है कि डोकलाम पठार के 80 वर्ग किलोमीटर के इलाक़े को क़ब्ज़ा कर लिया जाए और सीमा पर ज़मीनी हालात को अपने पक्ष में कर लिया जाए।
इस बात की जानकारी, हू शीशांग जैसे चीन के सरकारी विशेषज्ञों के मीडिया साक्षात्कारों से पता चलती है। लेकिन चीन किसी सैन्य संघर्ष में क्यों नहीं उतरना चाहता? इसके कई कारण हैं। दो कारण तो रणनीतिक हैं।
पहला, इसकी कोई गारंटी नहीं है कि वो जीत ही जाएगा क्योंकि इस इलाके में भारत ऊंचाई वाले इलाक़े पर काबिज़ है, जोकि पहाड़ के युद्ध में बहुत अहम बात होती है।
दूसरा, यह सीमित हमला एक लंबी लड़ाई में खिंच सकता है, जिससे घरेलू अर्थव्यवस्था के मंदी के दौर में राष्ट्रपति शी जिनपिंग बचना चाहते हैं।
चीनी राजनयिक अन्य देशों के अधिकारियों से मिलकर डोकलाम पर अपना पक्ष रख रहे हैं और भारत को आक्रामक ठहरा रहे हैं।
वो इस तथ्य को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं कि डोकलाम भूटान में हैं क्योंकि पश्चिमी देश, छोटे देशों पर बड़े देशों के हमले को नापसंद करते हैं।
लेकिन ये राजनयिक, पश्चिमी देशों को ये समझाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले देश ने ही असल में, दुनिया के दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश के इलाके में घुसपैठ की है।
चीन के लिए, इसकी उदारता पर निर्भर रहने वाले पाकिस्तान जैसे देशों को समझा पाना कहीं ज़्यादा आसान है।
भारत के ख़िलाफ़ अपने रुख के प्रति पश्चिमी देशों का समर्थन हासिल करने की उम्मीद चीन के लिए धूमिल हो चली है क्योंकि अभी हाल ही में वॉशिंगटन में हुई वार्षिक अमरीकी-चीनी रणनीतिक आर्थिक वार्ता के दौरान चीनी वार्ताकारों को गंभीर झटका लगा है।
दोनों पक्षों के बीच तब गतिरोध आ गया जब अमरीकी वार्ताकारों ने चीनी स्टील के डंपिंग को ख़त्म करने और चीनी सामानों के निर्यात के कारण पैदा हुए व्यापार घाटे को कम करने की मांग रख दी।
असंतुलित व्यापार संबंध को लेकर चीन के ख़िलाफ़ भारत की भी यही शिकायत रही है।
कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर मौजूद आक्रामक धड़ा, बीजिंग से डोकलाम में कब्ज़ा करने या भारतीय सैनिकों को मार डालने के आदेश देने को कह रहा है।
लेकिन सरकार इस तरह के आसान सुझावों को स्वीकार नहीं कर सकती क्योंकि भारत की जवाबी कार्रवाई में पीएलए के सैनिकों की मौत से झटका लगेगा और पीएलए के सालगिरह समारोह में विघ्न पड़ जाएगा।
मुंबई में चीन के पूर्व काउंसल जनरल लियू योउफ़ा ने एक स्थानीय टीवी चैनल से कहा है कि भारतीय सैनिक कब्ज़े या मौत को दावत दे रहे हैं क्योंकि उन्होंने चीनी इलाक़े में घुसपैठ की है।
उन्होंने कहा, "जब वर्दी पहने लोग सीमा पार करते हैं और दूसरे देश के इलाक़े में घुसते हैं, तो वो स्वाभाविक तौर पर दुश्मन बन जाते हैं, जिन्हें तीन नतीज़े भुगतने पड़ते हैं। पहला, वो स्वेच्छा से पीछे हट जाएं। या उन्हें पकड़ लिया जाए। और अगर तनाव बढ़ जाए तो वो मर भी सकते हैं। ये तीन संभावनाएं हैं।"
लेकिन संभावित नतीजा क्या है? डोभाल के दौरे का मतलब नहीं रह जाता, जबतक कि समझौते के बारे में उनके पास कोई योजना न हो।
सुषमा स्वराज पहले ही कह चुकी हैं कि भारतीय सैनिक पीछे नहीं हटेंगे, जबकि ये चीन की पूर्व शर्त है।
अपने अपने नागरिकों के सामने अपना सम्मान बचाने के लिए दोनों पक्षों को समाधान की कड़ी ज़रूरत है।
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