शनिवार, जुलाई 29, 2017

दलितों के नहीं, हिंदुस्तान के राष्ट्रपति!

रामनाथ कोविंद देश के नए राष्ट्रपति 
अब रामनाथ कोविंद देश के नए और 14वें राष्ट्रपति बन गए हैं।  बेशक उन्हें संघ-भाजपा और एनडीए कोटे का प्रथम राष्ट्रपति माना जाता रहेगा, लेकिन अब वह हिंदोस्तान के राष्ट्रपति हैं। वह दलितों, अल्पसंख्यकों, पिछड़ों से लेकर हिंदुओं तक सभी के राष्ट्रपति होंगे। खासकर अब देश के दलित सुकून महसूस करेंगे कि भारत का लोकतंत्र इतना महान और लचीला है कि एक गरीब और दलित परिवार का सदस्य भी राष्ट्रपति बन सकता है। दलितों के प्रति मर्म और सरोकार निर्वाचित राष्ट्रपति के प्रथम संबोधन में ही स्पष्ट था। उन्होंने बचपन की यादों को ताजा करते हुए कहा कि बरसात में गांव के कच्चे घर की घास-फूस वाली छत टपकती थी। हम भाई-बहन मिट्टी की दीवार से लगकर बारिश रुकने का इंतजार करते थे। आज भी न जाने कितने रामनाथ भीग रहे होंगे, वे बरसात में ही खेती कर रहे होंगे, रोटी के लिए मजदूरी कर रहे होंगे। पसीना बहा रहे होंगे। राष्ट्रपति भवन में मैं उनका ही प्रतिनिधि बनकर जा रहा हूं। रायसीना की पहाडिय़ों में बसे राजमहल से राष्ट्रपति भवन में बैठकर क्या रामनाथ कोविंद खासकर दलितों के लिए 'रामराज स्थापित कर सकेंगे? वह देश के दूसरे दलित राष्ट्रपति चुने गए हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश और अपने कोली समाज से प्रथम हैं। औसत दलित को उम्मीद होनी चाहिए कि दलितों पर अत्याचार और उत्पीडऩ के जो सिलसिले हजारों साल से और देश की आजादी के बाद भी जारी हैं, क्या उनमें कमी आएगी? हमारा मानना है कि राष्ट्रपति कोविंद अपने विशेष दखल से कुछ ऐसी स्थितियां बुन पाएं, तो यह कालखंड और दलित समाज हमेशा उनका आभारी रहेगा। दुर्भाग्य यह है कि सियासत ने दलितों को विभाजित कर दिया है। कोविंद के जरिए एक दलित वर्ग भाजपा-एनडीए के साथ है, तो दूसरा आज भी कांग्रेस, बसपा सरीखी पार्टियों से चिपका है, लेकिन अत्याचार और उत्पीडऩ समूचे दलितों का होता रहा है। वर्ष 2015 के ही आंकड़ों के मुताबिक देश भर में 45,000 से ज्यादा दलित उत्पीडऩ के मामले सामने आए हैं। उनमें सबसे ज्यादा 8358 उत्तर प्रदेश में और 6998 राजस्थान में हुए हैं। तब उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, लेकिन राजस्थान में भाजपा की सरकार रही। लेकिन राजनीति के आकलन एक-दो राज्यों के आधार पर नहीं किए जा सकते। राष्ट्रपति भवन में रामनाथ कोविंद का प्रवेश दलित राजनीति में भाजपा और फिर मोदी का 'मास्टर स्ट्रोक है, जबकि मायावती सरीखी बड़ी नेता दलित राजनीति के हाशिए पर आ गई है। 2007 से उनके दलित वोट बैंक का ग्राफ गिरता रहा है। मायावती के इस पतन का राजनीतिक फायदा भाजपा को जरूर होगा। दलित वोट बैंक विभाजित होगा, तो एक हिस्सा भाजपा के पक्ष में भी जाएगा। वैसे कोविंद के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद ऐसे सवाल भी किए जाने लगे हैं- 'क्या कोई सरसंघचालक भी दलित होगा? ये सवाल करने वाले नहीं जानते कि संघ का एक संगठन 'सेवा भारती दशकों से दलितों के बीच काम करता रहा है। चूंकि यह अराजनीतिक संगठन है, लिहाजा प्रचार की चकाचौंध से परे रहा है। लेकिन जो संघ के मर्म और मानस से परिचित हैं, वे जानते हैं कि सरसंघचालक किसी भी जाति के रहे हों, वे बुनियादी और मानसिक तौर पर हिंदू और दलित ही हैं।
बहरहाल राष्ट्रपति चुनाव ने 'दलितवाद
को राजनीति की धुरी बना दिया, लिहाजा पूरी तरह से यह राजनीतिक परिवर्तन का दौर है। ऐसा था तो पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, कर्नाटक, तेलंगाना, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, गुजरात आदि राज्यों में 116 विधायकों ने क्रॉस वोटिंग की। यानी भाजपा-एनडीए को समर्थन दिया। करीब 33 साल के बाद ऐसा मौका है कि जब राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति दोनों ही एक ही पार्टी के होंगे। तब 1984 में दोनों सर्वोच्च संवैधानिक पदों पर कांग्रेसी थे। कोविंद के पक्ष में सात लाख से अधिक वोट मूल्य का समर्थन गया है, जबकि विपक्षी उम्मीदवार मीरा कुमार का समर्थन करीब 3.67 लाख का रहा है। कोविंद की स्वीकारोक्ति है कि वह बाबू राजेंद्र प्रसाद, राधाकृष्णन, एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणब मुखर्जी सरीखे राष्ट्रपतियों की परंपरा और विरासत को आगे ले जाने का प्रयास करेंगे। बेशक उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता रहेगी कि संविधान की रक्षा की जाए और उसकी मर्यादा बरकरार रहे। एक दलित राष्ट्रपति बन रहा है, तो अपेक्षाएं और उम्मीदें भी स्वाभाविक ही हैं।

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